Friday, June 7, 2013

शर्म

शर्म, लज्जा, आंख की शर्म
को शब्दकोष से निकाल दो
क्योंकि सबकी आंख का पानी मर गया है।

जो जितना बदनाम है
वो उतने नामवाला हो गया है।

कुख्यात अब कोई नहीं
सब ख्याति प्राप्त सुप्रसिद्ध, जाने माने, नामी लोग हैं
डाकू और गणमान्य में कोई फर्क नहीं रह गया है।

चैन खींचने वाले, उठाईगीर, हाथ की सफाई करने वाले
जेबतराश लोग होते हैं लहुलुहान
जिस भीड़ के हाथों
वो ही भीड़ करोड़ो रूपये खाने वालों को नोटो की माला पहनाती है।

सबकी शर्म कुएं में डूबकर मर गई है
पन्द्रह महीने जेल में गुजारने के बाद भी 
शर्म हमको मगर नहीं आती।

हम तब भी जनता के कंठहार बने रहते हैं
जेल में सजा काटी हमने तो क्या जेल को जीत लिया
जेल भी हमारे लिये फाईवस्टार से कम न थी
अपनी औकात को पहचानों
जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाओं
जैसी बातें दकियानूसी हैं
अब नया सोच नया घपला करने का है
अपनी हद को न जाने, अपनी चादर को अमेरिका तक फैलाओ
और सफल हो जाओ भले ही जेल जाना पड़े
जेल से छूटोगे तो हीरो बन जाओगे। 

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