Sunday, June 30, 2013

केदारनाथ में तबाही के बाद


(एक)
 
लाशें इतनी कि
दफनाने को लकडि़यां कम पड़ गई हैं
दर्जी कफन सीते तंग आ गए हैं
डोम चिताओं को अग्नि देते-देते
और कब्र खोदनेवालों की कमर टूट गई है।
 
हर गांव, हर शहर में हर तरफ
ज़नाजे  ही ज़नाजे
जानी अनजानी-पहचानी-बेपहचानी लाशें ही लाशें
सड़कों पर, बगीचों में, दालानों में, बच्चे, स्त्री, पुरूष सब लाशें।
 
गायें रंभाती नहीं
घोड़े हिनहिनाते नहीं
भूखी बकरियां दौडती नहीं हरी पत्तियों की तरफ
स्कूल और खेल के मैदान श्मशानों में
मंदिर कब्रिस्तानों में देखते ही देखते
बदल गए हैं।
       
(दो)
 
क्या तुमने कभी सोचा है
कितना दु:ख होता है
जब एक औरत
भरी आंखों से
अपने बच्चे को गड़ढे में फेंक आती है
और अपने पति की कहीं
कोई धुंधली तस्वीर भी नहीं पाती है
 
हाहाकार और रूदन
जवान मांओं का करूण क्रंदन
सुनते सुनते मैं थक गया हॅूं
 
पेड़ों, पौधों, पशुओं और पंछियों के बारे में
मैं तुमसे कुछ नहीं कहता
पर मैं अपने दूध धुले बच्चे की किलकारी
फिर सुनना चाहता हॅूं .....................।
 
कुजड़े की बोली,
अमरूद बेचने वाले की आवाज,
दूधवाले की महक,
कामवाली बाई का गीत, कबाड़ी, दर्जी और
धोबी की सुबह-सुबह आवाज़
मैं फिर सुनना चाहता हॅूं
 
पड़ौस की लड़की का यों
छिपकर मिलना लड़के से
स्कूल से भारी बस्ता लेकर लौटती बच्ची
और डाकिये की साईकिल की
घंटी मैं फिर सुनना चाहता हॅूं ...............।
 

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