Wednesday, April 14, 2010

मुंबई सा इंदौर


(Source: जनसत्ता: 23 मार्च 2010)

Tuesday, April 13, 2010

घुमक्कड़ी के बहाने



(Source: जनसत्ता: 11 अप्रैल 2010)

सितारों भरा आसमां

वह एक सितारों भरा आसमां थी
जब वह गई तो छूट गया
शय्या पर एक नन्हा सितारा
मैंने उसे अपने आसमां पर टांग दिया।

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नदी केवल एक
केवल एक ही नदी है अंडमान में

बाकी सब तरफ
दहाड़ता हुआ समुद्र।

केवल एक ही नदी है यहां

जैसे एक ही है चंद्रमा
जैसे एक ही है सूरज

बाकी सब तो तारे हैं।

नटराज उदयशंकर के घुंघरुओं की आवाज

उदयपुर में जन्मे महान् कलाकार उदयशंकर वास्तव में नटराज थे। उदयशंकर के बारे में कहा जाता है कि देवताओं ने उन्हें अपना रूप दिखाने के लिए इस धरती पर भेजा था। इसीलिए जिन-जिन लोगों ने उनकी नृत्य मुद्राएँ देखी है- उन्हें उनमें दिव्यता का दर्शन तो होता था। यह भी लगता था कि जैसे साक्षात् इन्द्र, देव, गंधर्व, शिव इस धरती पर उतर आए हैं।
जब भी किसी शहर में उनके प्रदर्शन के पोस्टर लगते थे तो पूरे शहर में जैसे एक हंगामा सा हो जाता था कि उदयशंकर आ रहे हैं चाहे वह दिल्ली हो, लखनऊ हो, मुम्बई हो, कोलकाता हो या चैन्नई हो। यहाँ तक कि लंदन, पेरिस और न्यूयार्क में भी एक हलचल सी मच जाती थी। लोग उनके और उनकी मंडली के प्रदर्शन देखने को उत्सुक रहते थे। उनके शो हर जगह हाउसफुल जाते थे।

भारतीय शास्त्रीय नृत्य परम्पराओं से ज्यादा किसी औपचारिक प्रशिक्षण और शिक्षा-दीक्षा के बगैर भी उदयशंकर ने जैसे इन शास्त्रीय नृत्य परम्पराओं का पुनराविष्कार किया और शताब्दियों से दबी-ढकी नृत्य पद्धतियों की पुनः पहचान की। रामायण, महाभारत, जैसे मिथकों से प्रेरणा लेने के साथ साथ उन्होंने जनजातीय नृत्य रूपों की भी पहचान की। डांस, बैले और शैडो प्ले (छाया नाटक) भी उन्होंने रचे। मिथकों से प्रेरणा लेने वाले उदयशंकर आज स्वयं एक मिथक बन चुके हैं। अवतारों पर नृत्य करने वाले आज खुद एक अवतार बन गए हैं।

८ दिसम्बर १९०७ को उदयशंकर का जन्म राजस्थान के उदयपुर में हुआ था इसलिए उनका नाम उदयशंकर रखा गया। जैसोर (बंगलादेश) के मूल निवासी उदयशंकर के पिता पण्डित श्याम शंकर राजस्थान चले आए थे। जहाँ वे झालावाड महाराज के निजी सचिव थे। झालावाड के महाराजा कलाप्रेमी और कला संरक्षक थे। शुरू में उदय का मन किताबों में नहीं लगा। माता-पिता को उनकी चिन्ता रहती थी। तब उन्हें पता नहीं था कि उदय में जन्मजात कलाकार छुपा बैठा है। वे अपनी माँ हेमांगिनी के साथ जहाँ भी जाते वहाँ नृत्य समारोहों में जरूर जाते और उनका अध्ययन करते। बनारस में गाजीपुर के पास नसरतपुर गाँव में, राजस्थान, बंगाल और अन्य जगहों पर भी वे अहीरों, चमारों, भीलों और मारवाडयों के नृत्य देखते। शुरू में चित्रकला के प्रति उनके रुझान को देखते हुए उनके पिता ने १९१८ में उन्हें जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में भेजा, जहाँ उन्होंने असाधारण रुचि दिखाते हुए दो वर्ष में ही पाठ्यक्रम पूरा कर लिया। संगीत में गहरी रुचि होने के कारण मुम्बई में वे गंधर्व महाविद्यालय भी जाते थे।

१९२० में उदयशंकर रॉयल कॉलेज ऑफ आर्ट्स, लंदन में पढने गए। रॉयल कॉलेज के प्रेसीडेंट सर विलियम रोथेंसटीन कलाप्रेमी विद्वान् थे। उन्होंने उदयशंकर को ब्रिटिश म्यूजियम के क्यूरेटर के पास भेजा। ब्रिटिश म्यूजियम में उदय ने कला पर सैकडों किताबें पढीं और उनकी आँखें खुल गई। उन्हें पहली बार पता लगा कि हमारे देश में भी कला की अकूत सम्पदा है। हमारे देश में भी कला, संगीत, संस्कृति और नृत्य की महत्त्वपूर्ण विरासत छिपी है, जिसे खोजने, पहचानने की जरूरत है। कला के अंतिम वर्ष में प्रथम श्रेणी पाने वाले पहले भारतीय बने और उन्हें रोम में अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति मिली।

उदयशंकर के कॉलेज में किए गए एक नृत्य से लेडी डौरावती टाटा भी बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने उन्हें भारत दिवस पर लंदन के वैम्बले थियेटर में प्रदर्शन करने को कहा। सम्राट् जार्ज पंचम ने उनके शिव नृत्य को देखा और बधाई दी। शंकर के पिता जी विद्वान् होने के साथ साथ राजनीतिज्ञ भी थे। वे लंदन में १९१४ से १९२४ तक रहे। तभी रूसी नर्तकी अन्ना पावलोवा उदय के सम्फ में आई और उन्होंने उदयशंकर की मूल मुद्राओं पर आधारित प्रख्यात चित्र �अजंता� बनाया जिसमें उदयशंकर खुद अजंता की एक मूर्ति बने हुए हैं। उन्होंने ही उदयशंकर को राधा कृष्ण और हिन्दू विवाह नृत्य संरचनाएँ करने को उकसाया। इसमें उदयशंकर कृष्ण बने और पावलोवा राधा बनी। रॉयल आपेरा हाउस में यह नृत्य खूब हिट हुआ। पावलोवा उन्हें अपने नृत्य दल में शामिल करके अमरीका ले गईं।

१९२९ में उदयशंकर जब भारत लौटे तो एक चित्रकार की हैसियत से नहीं, बल्कि एक नर्तक की हैसियत से, हालाँकि चित्रकला में उनके पास रॉयल कॉलेज की डिग्री थी। विलियम रोथेंस्टीन के शिष्य को नर्तकी पावलोवा ने हडप लिया था। लेकिन पावलोवा सही थी। किसी चित्रकार और मूर्तिकार के पास ऐसी दिव्य देह नहीं थी, जैसी उदयशंकर के पास थी। वे जन्मजात नर्तक थे। भव्य दिव्य देह के स्वामी रवीन्द्रनाथ ने भारतीय कविता को अवनीन्द्रनाथ ने भारत की चित्रकला को विश्व के सामने प्रस्तुत करने में जो काम किया वही काम उदयशंकर ने भारतीय नृत्य के लिये किया। ऐसे समय उदयशंकर ने भारतीय नृत्य को नई शास्त्रीय ऊँचाइयाँ प्रदान की जब नृत्य को नाचने गाने वालियों, बाइयों, देवदासियों और मिरासियों का काम माना जाता था। उदयशंकर के तीन भाई देवेन्द्र, राजेन्द्र, और रविशंकर। पं. रविशंकर प्रसिद्ध संगीतकार हैं। उन्होंने अपने दादा यानी बडे भाई की कला के बारे में खूब लिखा है।

१९३५ में उदय की मुलाकात �अमला नंदी� से हुई जो पेरिस गई हुई थीं। वे भी उनकी मण्डली में शामिल हुई और १९४२ में उन्होंने विवाह कर लिया। अमलाशंकर ने अभी कुछ वर्ष पहले ८२ वर्ष की उम्र में उदयशंकर जन्म शताब्दी समारोह में दिल्ली के कमानी सभागार में नृत्य प्रस्तुत किया था। ममताशंकर प्रख्यात अभिनेत्री इनकी बेटी हैं। १९३७ में उदयशंकर जब कलकत्ता लौटे तो रवीन्द्रनाथ ने उनका भरपूर स्वागत अभिनंदन किया। तब वे अपनी नृत्य मुद्राओं से विश्वविजय कर चुके थे। अल्मोडा में जब संस्कृति केन्द्र खोलने की बात आई तो पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने भरपूर समर्थन दिया। १९३७ में हिमालय की गोद में अल्मोडा में नृत्य प्रशिक्षण केन्द्र खोला गया।

बर्फीले हिमशिखरों की छाया में अल्मोडा में पहली मार्च १९४० को जो उदयशंकर भारत संस्कृति केन्द्र खोला गया। उसमें सचमुच भारत की संस्कृति का समूचा प्रतिनिधित्व था। तंजौर, केरल, असम, गुजरात, उडीसा, संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, काठियावाड के विभिन्न नृत्य समूहों के गुरु शिष्य यहाँ कला साधना के लिए एकत्र हुए। शिष्यों को नृत्य नाट्य की ही नहीं नृत्य संरचना (कोरियोग्राफी) की भी ट्रेनिंग दी गई। वस्त्र संरचना, पोशाक, मुखौटे, मेकअप और मंच सज्जा की भी दीक्षा दी गई। उदयशंकर को २८० तरह से तबले बजाने आते थे। अल्मोडा का सारा खर्च उदय के विदेशी प्रशंसक उठाते थे। लंदन के उनके प्रशंसक उनकी विशेष मदद करते थे। रविशंकर ने भी इनकी मण्डली के लिए नृत्य किया था। कोष इकट्ठा करने के लिए इस मण्डली ने भारत दौरा किया था। कार्तिकेय, इन्द्र, चित्रसेना, शिव-ताण्डव, शिव-पार्वती, उषा और चित्रलेखा, देवयानी और शर्मिष्ठा जैसे मिथकीय चरित्र के साथ-साथ आधुनिक मनुष्य की विडम्बनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए श्रम और मशीन, जीवन चक्र आदि का भी मंचन किया। साथ ही कुमाऊँ, मारवाडी, भील और किसान नृत्य करके जनजातीय रूपों को अभिव्यक्ति प्रदान की। भारतीय कलारूपों को उन्होंने अपनी समस्त अस्मिता और राष्ट्रीयता के साथ अभिव्यक्त किया, साथ ही उन्हें एक वैश्विक ऊँचाई दी। अल्मोडा केन्द्र से ही गुरुदत्त, शांतिवर्धना, सिम्मी, अमला, सचिन शंकर (बेटा), मोहन सेहगल, सुन्दरी, श्रीधराणी, प्रभात गांगुली, जौहरा सहगल, पं. नरेन्द्र शर्मा, देवीलाल सामर, भगवान आदि कई प्रख्यात शिष्य दीक्षित होकर निकले, लेकिन वित्तीय मजबूरियों के चलते अल्मोडा संस्कृति केन्द्र बंद कर देना पडा। खर्च का बोझ ज्यादा हो गया था अन्य व्यावहारिक समस्याएँ आ खडी हुई थीं।

उदयशंकर ने अपनी सृजनात्मकता को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए �कल्पना� फिल्म का निर्माण किया, जिसके गीत महाकवि पं. सुमित्रानन्दन पंत ने लिखे थे। उदयशंकर ने उसका निर्देशन, निर्माण तो किया ही पटकथा भी लिखी। इसमें उनके व्यक्तित्व की समग्रता और प्रतिभा का समुच्चय है। इस महान् प्रतिभा का केवल आज यही दस्तावेज हमारे पास बचा है। चूँकि इसमें उनके महान् कला व्यक्तित्व के कुछ टुकडे ही जगह जगह जोडे गए थे, अतः व्यावसायिक रूप से यह फिल्म बुरी तरह पिट गई। �कल्पना� में उदय और अमला की जोडी थी।

मद्रास के सांस्कृतिक वातावरण से प्रभावित होकर उदयशंकर ने वहाँ भी एक घर बनाया, जिसमें एक सभागार भी था। वहाँ भी एक नृत्यमण्डली बनाई और चीन, यूरोप तथा अमरीका का भ्रमण किया।

१९६० में वे कलकत्ता चले गए। वहाँ उन्होंने एक अन्य मण्डली बनाई। लेकिन वहाँ उम्र असर करने लगी थी। स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। असम में नृत्य प्रदर्शन के दौरान ही उन्हें हृदयाघात पडा। ठीक होते ही वे अमरीका दौरे पर चले गए, जहाँ १९६८-६९ में उन्हें पक्षाघात का दौरा पडा। सेनडिएगो अस्पताल में ठीक होने के बाद वे भाई रविशंकर के साथ लासएंजेल्स में रहे। गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उनकी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता मंद नहीं पडी थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर जन्मशताब्दी के लिए १९६९ में उन्होंने �सामान्य क्षति� नाम का भव्य प्रदर्शन किया था।

बुद्ध की २५०० वीं जयन्ती पर बुद्ध के जीवन पर छायानाटक तैयार किया। ७१ बरस की पकी उम्र में भी शैक्सपीयर की नई प्रस्तुति तैयार की। उनकी कला टैगोर के शब्दों में कहें तो केवल प्रान्तीयता की चौहद्वी में सिमटकर नहीं रही।

उदयशंकर को देश-विदेश से अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। संगीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता, विश्वभारती, विश्वविद्यालय शान्तिनिकेतन से देशिकोत्तम और १९९७ में पद्म विभूषण मिला। रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय के वे पहले नाटक नृत्य डीन बने। इसी विश्वविद्यालय ने उनकी स्मृति में एक सभागार का नाम उनके नाम पर रखा और वहाँ उदयशंकर पीठ की स्थापना की। लेकिन आखिरी दिन उनके दुःखभरे बीते। नेहरू फैलोशिप के लिए उनके आवेदन को ठुकरा दिया गया। कलकत्ता के एक अंधेरे कोने में केवल अपने रसोइए और एक दो नौकर के साथ वे गुमनामी में जी रहे थे। बीमारी में उन्हें अकेलेपन का संताप डस रहा था। उन्हें उनके अपने परिवार ने अकेले छोड दिया था और उन लोगों ने भी जो उनके अच्छे दिनों में तो उनके साथ थे। भाई रविशंकर ने विदेशों में उनके रहने की पक्की व्यवस्था की थी पर उदय वहाँ गए नहीं। लाखों करोडों में खेलने वाला महान् कलाकार अब भूखों मर रहा था। पहाडों की ऊँचाईयों पर खिला, सोने सा दमकता सूरज अब कलकत्ता के फ्लैट में धीरे धीरे अस्त हो रहा था। राजा रानी की सोने की पोशाकें अब धूल खा रही थीं।

२६ सितम्बर १९७७ की सुबह छह बजकर १० मिनट पर आखिर मृत्यु जब आई तो उन्होंने उसे गले लगा लिया, क्योंकि वही अब उन्हें कष्ट से, अकेलेपन की यातना से मुक्ति दिला सकती थी। उन्होंने अपने बेटे, बेटी और पत्नी को आशीर्वाद दिया और चले गए अंजाने पथ की ओर। नृत्य परम्परा को आगे बढने के लिए चले गए। पश्चिम बंगाल सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि की। बंगाल के सरकारी दफ्तर बंद कर दिए गए। मृत्यु ने उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकाला, फिर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचा दिया था। रवीन्द्र भवन में उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने हजारों लोग पहुँचे। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों की भीड लग गई। डाक विभाग ने उदयशंकर और उनकी नृत्यमण्डली पर टिकट निकाले। उनका ताण्डव नृत्य का टिकट बहुत प्रसिद्ध हुआ। सत्यजीत राय ने उदयशंकर पर वृत्तचित्र बनाने की कोशिशें की, लेकिन वह काम नहीं हो पाया।

अमला शंकर और ममता शंकर कोलकाता में उदयशंकर नृत्य विद्यालय चलाते हैं। वे उदयशंकर की नृत्य परम्परा को आगे बढा रहे हैं। नटराज अब नहीं हैं, लेकिन उनके घुंघरुओं की आवाज अब भी सुनी जा सकती है। संगीत नाटक अकादमी ने उनकी जन्म शताब्दी पर २००१ में दिल्ली में एक सप्ताह की नृत्य नाटक सभाएँ आयोजित की थीं जिसमें इस जीनियस के काम की फिर पहचान की गई थी।

अंडमान

अंडमान के नारियल से लदे वृक्षों
मैं आऊंगा अंबर्डीन, बिल्लीग्राउंड
बम्बूफ्‌लाट, मीठाखाड़ी, हाथीटापू, जंगलीघाट
डिगलीपुर, हैडो, गोलघर, चाथम और सीपीघाट के तबाह घाट
मैं फिर आऊंगा।

ओ नन्हीं और लम्बी छिपकलियों।
दूर देष से मैं फिर आऊंगा, मेरी बांह जितनी लम्बी तरोई,
करेले और नीम और नारियल और मिर्ची
ओ समुद्र! मैं फिर आऊंगा।

ओ! स्टोव पर घर भर का खाना बनाती औरत
ओ! पेड़ को काटकर नाव बनाते मल्लाह
ओ! छतरी लेकर समुंदर में जाल फैलाए मछुआरे
और उनके हाथ न आती मोटी मछलियों
मैं आऊंगा।

साफ सुबह के आसमान
साफ सुबह के पेड़ों और पहाड़ों मैं फिर आऊंगा।

ओ बूढ़े हज्जाम।
केरल के एक गांव में शताब्दियों पहले आए
मैं फिर आऊंगा अगली शताब्दी में
तुम्हीं से अपने बाल काले कराऊंगा।


मुझे पहचानना।
मुझे भूल न जाना।
ओ नन्हीं छिपकली
मैं फिर आऊंगा।

निरर्थकता के बीच कविता

इसी वर्ष ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित शीर्ष कवि कुंवर नारायण अपने खंडकाव्य 'वाजश्रवा के बहाने' में कहते हैं कि 'जीवन में संघर्ष ही संघर्ष नहीं हैं। इस तरह चित्रित करने से कि जीवन सतत संघर्षमय ही है उसकी जरुरत से ज्यादा क्रूर छवि उभरती है। उसमें मार्मिक समझौते और सुंदर सुलहें भी हैं। इस विवेक को प्रमुख रखकर भी जीवन को सोचा और चित्रित किया जा सकता है।' हमारे युवा कवियों को और अधेड़ और बुजुर्ग कवियों को भी कुंवर जी से प्रेरणा लेनी चाहिए जो जीवन में और कविता में भी संघर्ष ही संघर्ष देखते हैं। आज से आधी सदी पहले प्रकाशित उनके खंडकाव्य 'आत्मजयी' में नचिकेता की भूमिका प्रमुख थी तो 'वाजश्रवा के बहाने' में उसके पिता के विचारों, भावनाओं और द्वंद्व का चित्रण है। दोनों खंडकाव्य अपने आप में संघर्षशील होते हुए भी कहीं एक दूसरे के पूरक भी हैं। वाजश्रवा और नचिकेता के पात्र भले ही 'कठोपनिषद' से लिए गये हों, किंतु पिता-पुत्र के दृष्टिकोण का अंतर आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उचित ही है कि कुंवर जी ने अपनी यह पुस्तक अपने नचिकेता यानी अपने पुत्र अपूर्व को समर्पित की है। कुंवर जी से भाषा संयम भी सीखा जा सकता है। आज के कवियों को सीखना चाहिए।

पिता की भौतिकता और पुत्र की आत्मिकता के बीच जो टकराव है, आशा-निराशा के बीच का जो द्वंद्व है उसे कवि ने द्वंद्व के रुप में नहीं, बल्कि संयुक्त या दोहरी जीवनी शक्ति के रुप में देखा है। कहीं-कहीं नरेश मेहता की तरह कुंवर जी प्रकृति का आह्वान करते प्रतीत होते हैं। ''कभी एक यज्ञ करता हूँ, उसके साथ बैठकर/ तब पुरोहित हो जाता है पूरा वन/तब आकाश गूँज उठता है, उसके मंत्रोच्चार की/और हवा में फैल जाती है, फूलों की सुगंध।''

कुछ कविताएँ वैदिक ऋचाओं के अनुवाद जैसी लगती हैं। ''लौट आओ प्राण:, पुन: हम प्राणियों के बीच/तुम जहाँ कहीं भी चले गए हो/हमसे बहुत दूर/लोक में परलोक में/तम में/आलोक में, शोक में, अशोक में/वात में, निर्वात में, निर्झर में, निपात में/कात्पि में समाप्ति में।'' पुराकथाओं और मिथकों से संदर्भ लेकर आज के जीवन को देखने की अद्भुत दृष्टि कुंवरजी के पास है।

ऐसे समय में जब अधिकांश अधेड़ और युवा कवि वर्तमान भारतीय सामाजिक, राजनीतिक जीवन को ही अपना प्रमुख विषय बनाए हुए हैं, विष्णु खरे पाठांतर करते हैं और बताते हैं कि हमारे मिथकों से अभी भी प्रेरणा ली जा सकती है। महाभारत की अनेक कथाओं से लेकर उन्होंने अद्भुत कविताएँ रची हैं। इस दृष्टि से प्रतिरोध कविता देखी जा सकती है जो गणेश के जन्म के प्रसंग से उस विचित्र भाग्य हाथी शिशु की नियति भी मार्मिक ढंग से उजागर करती है। जीवन जगत के, सृष्टि के, ईश्वर के अनेक रहस्यों को खोलती हुई उनकी कविता कहीं-कहीं बोझिल तत्सम शब्दावली का शिकार जरुर हो जाती है, लेकिन वे नयी दृष्टि से अंधकार पर-प्रकाश डालते हैं-''यह ठीक है कि जो प्रकाश को जानते हैं/उनके लिए यह अनिवार्य है/लेकिन इस मानसिकता के चलते/अंधकार की अक्षम्य उपेक्षा हुई है।'' एक कविता में तो वे अंग्रेजी के शब्दों की भरमार कर देते हैं और एक कविता गोधरा-मालवा इलाके की है, इसलिए मालवी में लिखी गई है। विष्णु खरे शब्दों की मितव्ययिता को कविता का गुण नहीं मानते और अक्सर गद्य के इलाके में चले जाते हैं। कई बार वे कविता के सीमांतों का अतिक्रमण करने लगते हैं। रुढि़बद्ध काव्य प्रतिमानों को तोड़ते नजर आते हैं।

लीलाधर जगूड़ी अपनी लंबी और छोटी कविताओं के संपुंजन को महाकाव्यात्मक स्वरुप प्रदान करने में सिद्धहस्त हैं। उनकी देखादेखी कई युवा कवि भी इधर लंबी-लंबी छोड़ रहे हैं, लेकिन अक्सर वे एक लंबा और दीर्घ उलजुलूल वाक्य ही लिखकर रह जाते हैं। कविता के उजाड़ में ही कुछ जोड़ते रहते हैं। कवि कहता है कि 'खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है।' लीलाधर जगूड़ी की कविता का मुँह भी आज बाजार से ढंका है, विज्ञापन से ढंका है, अखबार से, अर्थ से ढंका है। आज की कविता में आदिकाल से लेकर आज तक के व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के समस्त संघर्षों और अठखेलियों का एकदम नया काव्य प्रस्तुत करने का भले ही दावा किया जाता है, पर अक्सर यह दावा खोखला साबित होता है। कवि कहता है कि ''अपनी सरस्वती की अंदरुनी खबर और उस पर कड़ी से कड़ी नजर/इस ज्ञान-निर्भर युग में हरेक को रखनी चाहिए।'' पर अक्सर कवि ही यह नहीं कर पाता है। थोथा चना, बाजे घना।

लीलाधर जगूड़ी की चुनी हुई कविताएँ 'कवि ने कहा' में अपेक्षाकृत छोटी कविताएँ हैं। 'रोज हम में से कोई चला जाता है/ रोज हम में से कोई खो जाता है' विष्णु नागर घर, परिवार प्रकृति के चित्रण में सिद्धहस्त हैं। काव्यात्मकता उनके यहां है लेकिन कई बार वे नारा लगाने से नहीं चूकते-''सबसे अच्छी कविता/सबसे बुरे दिनों में पहचानी जाएगी/देखते-देखते आग में बदल जाएगी।'' कविता आग में कब बदलेगी-यह देखना होगा। कविता भारतीय राजनीति को ही नहीं बदल पाई। नरेन्द्र मोदी को ही नहीं बदल पाई, जबकि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लगभग हर बड़े कवि ने विषवमन किया है। क्या गुजरात में हिन्दी कविता नहीं पढ़ी जाती?

आज अधिकांश कविता खराब लिखी जा रही है। समाज और जीवन खराब है, क्या इसीलिए स्वाभाविक है कि कविता भी खराब हो। लीलाधर जगूड़ी-''यह जो कुछ भी कविता बना रही है/इसका सामाजिक खराबियों से ही तो कोई संबंध नहीं?'' समाज के खराब हालातों का तो कविता से संबंध है। ''जो वाक्य देखो वही निरर्थकता के बीच कविता बना चला आता है/अपने गरीब आशय और अर्थ के साथ''-(जगूड़ी)। वहीं असद जैदी कहते हैं-''एक कविता जो पहले ही से खराब थी/होती जा रही है अब और खराब/सारी समालोचना राख है, जिसके सामने। भाव की जगह शब्द ''ऊल-जुलूल और फिजूल में भी/कोई न कोई अर्थ या ध्वनि पैदा कर ही देता है।''(जगूड़ी)

अन्याय को ईश्वर की तरफ सर्वव्यापक देखकर आज का कवि अपनी आँखें मूँद लेना चाहता है। उसका प्रतिकार करने की ताकत जैसे आज के मनुष्य में नहीं है, वैसे ही आज के कवि में भी नहीं है।

आज की कविता विश्व कविता का कोलाज भर है, उसमें संपादन की कमी है।
आज समाज में कविता और कवि की जो जगह है उसमें फिर भी मैं कवि हूँ, कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है।
वरिष्ठ कवि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के संग्रह 'फिर भी कुछ रह जाएगा।' में ठंडी आग है। न उछाल है न उद्दाम आग है, न आत्मरति और न बनावट, न कविता बनाने की जुगत इनमें है। इनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति तथा राग और विराग की बेचैनी है। इस दुखमय जगत के बीच जीने की अदम्य जीजीविषा मरणधर्मा संसार में कुछ अनीश्वर की खोज, अर्थ के भीतर भी अर्थ की तलाश और व्यक्त में ही अव्यक्त की तलाश इनमें देखी जा सकती है। इनमें अनंत जन्मों की कथा है। घर-परिवार, स्त्री शोषण पर चिरपरिचित कविताएँ हैं।
हेमंत शेष के 'बहुत कुछ जैसा कुछ नहीं' में १९८२ से २००२ के बीच की कविताएँ हैं। इनमें अनुभवों और अनुभूतियों का एक समृद्ध संसार प्रकट होता है। घर के बारे में कविता लिखते हुए वे कविता का घर बनाते हैं। 'दरवाजे अच्छी कविता है।'

असद जैदी-'सामान की तलाश' और नीलाभ-'ईश्वर को मोक्ष में' भारतीय राजनीति, हिन्दू सांप्रदायिकता, गुजरात नरसंहार और नरेन्द्र मोदी के पापों पर चोट करते हैं। असद जैदी के एकांगी दृष्टिकोण पर वर्षभर बहस चली है। नीलाभ ने ठीक ही लिखा है कि ''निश्चिय ही कविता के लिए यह बुरा वक्त है। जब वह कवि को, हजारों के पुरस्कार दिला देती है। लाख रुपए की विदेश यात्रा करा देती है, मगर पचास पाठक नहीं जुटा पाती। निश्चिय ही कविता के लिए यह बहुत बुरा वक्त है।'' नीलाभ ने ही लिखा है कि ''कविता इन दिनों कुछ इतनी बेढंगी हो गयी है कि समझ में नहीं आता कि उसका क्या करें।''

स्त्रियाँ और स्त्रीजीवन आज की हिन्दी कविता में पूरी संवेदनशीलता के साथ आया है। आज जितनी कवियित्रियाँ हिन्दी में दिखाई देती हैं। उतनी पहले कभी नहीं रहीं। स्त्री की जीवंत एवं मार्मिक उपस्थिति पुरुष कवियों में भी बराबर देखी जा सकती हैं। कवि तुमुल कोलाहल कलह के बीच निरंतर अपने को मांज रहे हैं। वे यह जान गए है कि आत्ममुग्धता के शिकार कवि ज्यादा दिन तक नहीं चल पाएँगे उनकी पूँजी चुक जाती है। 'बयां' जैसी अद्र्धवार्षिक पत्रिका में भी अच्छी कविताएँ आई हैं।

कई कवि अपने वरिष्ठ कवियों की अंधाधुंध नकल करके ही अपनी दुकान चला रहे हैं। कुछ पत्रिकाएँ और प्रकाशक ऐसे कवियों को कुछ समय तक बढ़ावा जरुर देते हैं, लेकिन यह सब देर तक नहीं चलता है और उनकी दुकानदारी बंद हो जाती है। कविता के कंटकाकीर्ण मार्ग पर अपनी ही खुद की रसद लेकर चलना होता है। कमलेश जैसे कवि का इस वर्ष फिर सक्रिय होना इस बात का उदाहरण है कि अपने समय की कविता की चमक-धमक से निर्लिप्त रहकर भी सार्थक कविता लिखी जा सकती हैं। कमलेश फैशनेबल कविता नहीं लिखते। उधार के आयातित अनुभव उनकी कविता में जगह नहीं पाते।

प्रयाग शुक्ल जैसे कवि 'हाइकु' को लेकर भी अनेक प्रयोग कर रहे हैं।

आज की हिन्दी कविता स्त्रियों, दलितों, वंचितों की होकर भी किसी राजनीतिक संगठन से जुड़ी हुई नहीं है। उसमें दलित एजेंडा उस तरह उभरकर नहीं आता है, जिस तरह दलित कहानीकारों में वह आता है। दुनिया को और सुंदर और मानवीय और अर्थगर्भ बनाने में आज का कवि और उसकी कविता लगी है। जीवन और समाज के अंधेरे कोनों-अंतरों में झाँक कर वे जीवन में उजाला लाते हैं। जहाँ बहुत अधिक उजाला होता है, वहाँ का अंधेरा दिखाने के लिए सही कवि की जरुरत पड़ती है। नए-नए संदर्भों पर इतनी अच्छी कविताएँ इधर पढऩे को मिली हैं कि समकालीन कविता के वस्तुजगत में जबर्दस्त फैलाव आया है। समकालीन हिन्दी कविता का सौंदर्यबोध और बढ़ेगा। अगर कुछ कवि स्मार्ट वक्तव्यों की कीर्तियागिरी से बचें और कविता में ज्यादा चतुरसुजान न बनें। सामाजिक परिवेश में हिंसा के दुष्प्रभावों को लोकजीवन की आंतरिक तहों में देखने का काम महत्वपूर्ण ढंग से ऋतुराज और श्रीप्रकाश शुक्ल ने इधर किया है। इनकी कविताओं में हिंसा के नए-नए रुप दिखाए जा रहे हैं। इनकी कविताओं में हिन्दी प्रदेशों की सांस्कृतिक चेतना पर पडऩे वाले तरह-तरह के संकट देखे जा सकते हैं। प्रसार माध्यमों द्वारा फैलाई जा रही छद्दम चेतना और इन सबके बीच कवि और उसके परिवेश के निरंतर जटिल होते संबंधों की अनुगंूज सुनी जा सकती है। ये कवि एक नई अंतदृष्टि के साथ राजनीति, अर्थ, समाज विज्ञान, मनोविज्ञान और संस्कृति के आपसी जटिल संबंधों की पड़ताल कर रहे हैं।

यह सही है कि क्लीशे और काव्यरुढिय़ों पर हमला बोलने वाली कविता आज कम लिखी जा रही है पर वह निरंतर मत-मतांतरों और मताग्रहों को तोड़ती चल रही है। गलाकाट प्रतिद्वंद्विता से भरे समय में मनुष्य के सामने आज अपनी अस्तित्व रक्षा का ही संकट आ खड़ा हुआ है। किसानों की आत्महत्या के दिल दहलाने वाले आँकड़े आज हमारे सामने हैं। घर, परिवार, बेरोजगारी, असामनता, प्रेम और स्नेह की अनुपस्थिति, असुरक्षा, अनियमितता, आशंकाएँ, घरेलू और सामाजिक हिंसा के नए-नए रुप आज हमारे कवि को विचलित कर रहे हैं। वो इन सबके बीच अपना निजी मुहावरा तलाश कर रहे है।

सम्पर्क- २१ ब, लॉ एपॉर्टमेंट, ए.जी.सी.आर. इंकलेव, दिल्ली-११००९२, मो.-०९३१२१४७०५१
(Source: http://www.prernamagazine.com/dec-09/bahas-kai-liye/rajendra.html )

Monday, April 12, 2010

दादा के न रहने पर

तुमने जितना बड़ा आकाश दिखाया था मुझे
वह अब कितना छोटा हो गया है
तुमने जितनी बड़ी दिखाई थी वह धरती
अब कितनी छोटी हो गई है
कि तुम्हारे पैर धरने जितनी जगह भी इसमें नहीं

तुम जिन्हें मुझे दिखाया करते थे
अब उन तारों और नक्षत्रों के पार कहाँ चले गए हो
पता नहीं किन नक्षत्रों की रोशनी लाने
पता नहीं किन सूर्यों की धूप लाने
पता नहीं किन कामधेनुओं को घर बुलाने
तुम जंगल में गए और लौटे नहीं
क्या तुम उस अंधेरी गुफा में चले गए हो
जहाँ एक बार
जाने पर कोई नहीं लौटता

ऋतुओं के पहले पहले फल फूल
तुम मेरे लिए लाए
पहला नवान्न, गुड़ की पहली डली,
सद्य:प्रसूता गौमाता का नया दूध
और बावड़ी का अमृत सा पानी!
कितना मीठा है कौन सा अमरूद
किसके खेत की मक्की मीठी है सफ़ेद
और एक भुट्टे के कितने व्यंजन बताए तुमने।

इस देह में जितना जो खून है
तुम्हारा बनाया है जो भी रस है
इस देह में जितना जो लोहा है
उसे तुमने अपने हाथों से गढ़ा है
यह देह तुम्हारी तपाई हुई है
तुम्हारी बनाई हुई है
तुम्हारी नहलाई हुई है मेरी यह देह

आखिर में तुम्हारी देह का इस्पात भी
मोम की तरह गल गया था
काल की गदा की मार से
मैंने उसे पौलीथीन की थैली में भरा
और उज्जैन में शिप्रा में बहा आया।

तुम आओगे लौट कर
कभी गल्ले में पैसे गिनते
कभी भीलों के दुखदर्द सुनते
आड़े और गाढ़े समय में
उनके काम आते
शहर से लाई अपनी दवा में से उन्हें दवा देते।

तुम आओगे
राख में चिनगारी ढूँढते
सावन छत पर कवेलू जमाते
गली के आवारा कुत्तों और शराबियों से
भले घर की स्त्रियों को बचाते

तुम उस गिलहरी के लिये
एक अमरूद रखोगे
जिसने राम जी की सेवा की है
और सुनहरी हुई है
तुम उस ईश्वर का शुक्रिया अदा करोगे
जो अलाव के भीतर बिल्ली के बच्चों को ज़िन्दा रखता है।

(Source: http://www.anubhuti-hindi.org/sankalan/pita_ki_tasweer/dada.htm )

स्वतंत्रता की साधक सुभद्राकुमारी चौहान

सुभद्रा कुमारी चौहान की 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी' कविता की चार पंक्तियों से पूरा देश आज़ादी की लड़ाई के लिए उद्वेलित हो गया था। ऐसे कई रचनाकार हुए हैं जिनकी एक ही रचना इतनी ज़्यादा लोकप्रिय हुई कि उसके आगे की दूसरी रचनाएँ गौण हो गईं, जिनमें सुभद्राकुमारी भी एक हैं। उन्होंने ज़्यादा कुछ नहीं लिखा है। उनकी एक ही कविता 'झाँसी की रानी' लोगों के कंठ का हार बन गई है। एक इसी कविता के बल पर वे हिंदी साहित्य में अमर हो गई हैं।

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सुभद्राकुमारी चौहान अपने नाटककार पति लक्ष्मणसिंह के साथ शादी के महज़ डेढ़ साल के भीतर ही सत्याग्रह में शामिल हो गईं और जेलों में ही जीवन के अनेक महत्वपूर्ण वर्ष गुज़ारे। गृहस्थी और नन्हे-नन्हे बच्चों का जीवन सँवारते हुए उन्होंने समाज और राजनीति की सेवा की। देश के लिए कर्तव्य और समाज की ज़िम्मेदारी सँभालते हुए उन्होंने व्यक्तिगत स्वार्थ की बलि चढ़ा दी-
न होने दूँगी अत्याचार, चलो मैं हो जाऊँ बलिदान।

सुभद्राकुमारी की कविता 'झाँसी की रानी' महाजीवन की महागाथा है। कुछ पंक्तियों की इस कविता में उन्होंने एक विराट जीवन का महाकाव्य ही लिख दिया है। इस कविता में लोकजीवन से प्रेरणा लेकर लोक आस्थाओं से उधार लेकर जो एक मिथकीय संसार उन्होंने खड़ा किया है उससे 'झाँसी की रानी' के साथ सुभद्रा जी भी एक किंवदंती बन गई हैं। भारतीय इतिहास में यह शौर्यगीत सदा के लिए स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया है-

सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटी तानी थी
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

आज हम जिस धर्मनिरपेक्ष समाज के निर्माण का संकल्प लेते हैं और सांप्रदायिक सद्भाव का वातावरण बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं- सुभद्रा जी ने बहुत पहले अपनी कविताओं में भारतीय संस्कृति के इन प्राणतत्वों को रेखांकित कर दिया था-

मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद, काबा-काशी यह मेरी
पूजा-पाठ, ध्यान जप-तप है घट-घट वासी यह मेरी।
कृष्णचंद्र की क्रीड़ाओं को, अपने आँगन में देखो।
कौशल्या के मातृमोद को, अपने ही मन में लेखो।
प्रभु ईसा की क्षमाशीलता, नबी मुहम्मद का विश्वास
जीव दया जिन पर गौतम की, आओ देखो इसके पास।

सुभद्राकुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन १६ अगस्त १९०४ को इलाहाबाद के पास निहालपुर गाँव में हुआ था। पिता का नाम ठाकुर रामनाथ सिंह था। सुभद्राकुमारी की काव्य प्रतिभा बचपन से ही उजागर हो गई थी। १९१३ में नौ साल की उम्र में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका मर्यादा में छपी थी। 'सुभद्राकुँवरि' नाम से छपी यह कविता 'नीम' के पेड़ पर लिखी गई थी। सुभद्रा अपनी बहनों के साथ स्कूल जाती और स्कूल की चारदीवारी के भीतर दौड़-भाग और खेलकूद की पूरी स्वतंत्रता थी। सुभद्रा चंचल और कुशाग्र बुद्धि थी। पढ़ाई में अव्वल आने का उसको इनाम मिलता था। सुभद्रा अत्यंत शीघ्र कविता लिख डालती, गोया उसको कोई प्रयास ही न करना पड़ता हो। स्कूल के काम की कविताएँ तो वह साधारणतया घर से आते-जाते इक्के में लिख लेती थी। इसी कविता की वजह से भी स्कूल में उसकी बड़ी चाहत थी।

सुभद्रा और महादेवी वर्मा दोनों बचपन की सहेलियाँ थीं। बड़ी होने पर इन दोनों ने साहित्य के क्षेत्र में बहुत नाम कमाया। दोनों ने एक-दूसरे की कीर्ति से सुख पाया। ईर्ष्या की मलिनता उनके बचपन की मैत्री को मलिन नहीं कर पाई।

सुभद्रा की पढ़ाई नवीं कक्षा के बाद छूट गई। गांधी जी की असहयोग की पुकार को पूरा देश सुन रहा था। सुभद्रा ने भी स्कूल से बाहर आकर पूरे मन-प्राण से असहयोग आंदोलन में अपने को झोंक दिया- दो रूपों में। एक तो देश-सेविका के रूप में और दूसरे, देशभक्त कवि के रूप में। 'जलियांवाला बाग' (१९१७) के नृशंस हत्याकांड से उनके मन पर गहरा आघात लगा। उन्होंने तीन आग्नेय कविताएँ लिखीं। 'जलियाँवाले बाग़ में वसंत' में उन्होंने लिखा-

परिमलहीन पराग दाग़-सा बना पड़ा है
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है।
आओ प्रिय ऋतुराज! किंतु धीरे से आना
यह है शौक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना।
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खाकर
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।
भाई ने जब सुभद्रा का विवाह नाटककार लक्ष्मण सिंह के साथ तय कर दिया तो सुभद्रा की अध्यापिका ने कहा कि आप इस लड़की का विवाह न करें, यह तो एक ऐतिहासिक लड़की होगी। इसका विवाह करके आप देशका बड़ा नुकसान करेंगे। आगे चलकर यही लड़की सुभद्राकुमाही चौहान हुई, जिन्होंने 'झाँसी की रानी' जैसी ऐतिहासिक कविताएँ लिखीं और जो देश की आज़ादी के लिए अनेक बार जेल गईं।

सुभद्रा की शादी अपने समय को देखते हुए क्रांतिकारी शादी थी। न लेन-देन की बात हुई, न बहू ने पर्दा किया और न कड़ाई से छुआछूत का पालन हुआ। दूल्हा-दूलहन एक-दूसरे को पहले से जानते थे, शादी में जैसे लड़के की सहमति थी, वैसे ही लड़की की भी सहमति थी। बड़ी अनोखी शादी थी- हर तरह लीक से हटकर। ऐसी शादी पहले कभी नहीं हुई थी।

जबलपुर से दादा माखनलाल चतुर्वेदी कर्मवीर निकालते थे। उसमें लक्ष्मण सिंह को नोकरी मिल गईं। सुभद्रा भी उनके साथ जबलपुर आ गईं। सुभद्रा जी सास के अनुशासन में रहकर मात्र सुघर गृहिणी बनकर संतुष्ट नहीं थीं। उनके भीतर जो तेज था, काम करने का उत्साह था, कुछ नया करने की जो लगन थी, उसके लिए घर की चारदीवारी की सीमा बहुत छोटी थी। सुभद्रा जी में लिखने की प्रतिभा थी और अब पति के रुप में उन्हें ऐसा व्यक्ति मिला था जिसने उनकी प्रतिभा को पनपने के लिए उचित वातावरण देने का प्रयत्न किया।

दोनों पति-पत्नी मन-प्राण से कांग्रेस का काम करने लगे। सुभद्रा महिलाओं के बीच जाकर स्वाधीनता संग्राम का संदेश पहुँचाने लगीं। वे उन्हें स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने, पर्दा छोड़ने, छुआछूत और ऊँच-नीच की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठने की सलाह देती थी। स्त्रियाँ सुभद्रा की बातें बड़े ध्यान से सुनती थीं। १९२०-२१ में मध्यवर्ग की बहुओं में प्रगतिशील मूल्यों का संचार करने में सुभद्रा ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई।

१९२०-२१ में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह दोनों अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य थे। १९२०-२१ में सुभद्रा और लक्ष्मण सिंह ने नागपुर कांग्रेस में भाग लिया और घर-घर जाकर कांग्रेस का संदेश पहुँचाया। त्याग और सादगी के आवेश में आकर सुभद्रा जी सफ़ेद खाकी की बिना किनारी धोती पहनती थीं। गहनों और कपड़ों की बहुत शौकीन होते हुए भी उनके हाथों में न तो चूड़ियाँ थीं और न माथे पर बिंदी। आखिर बापू ने सुभद्रा जी से पूछ ही लिया, ''बेन! तुम्हारा ब्याह हो गया है?'' सुभद्रा ने कहा, ''हाँ!'' और फिर उत्साह में आकर बताया कि मेरे पति भी मेरे साथ आए हैं। इस बात को सुनकर बा और बापू जहाँ आश्वस्त हुए वहाँ कुछ नाराज़ भी हुए। बापू ने सुभद्रा को डाँटा, ''तुम्हारे माथे पर सिंदूर क्यों नहीं है और तुमने चूड़ियाँ क्यों नहीं पहनीं? जाओ, कल किनारे वाली साड़ी पहनकर आना।''

कुछ न कुछ जादू सुभद्रा जी में अवश्य था और यह जादू ऐसा था जिसका प्रभाव अकेले उनके पति लक्ष्मण सिंह पर नहीं, बल्कि अन्य सब लोगों पर भी पड़ा जो किसी भी उनके संपर्क में आया और वह जादू था सुभद्रा जी के सहज स्नेही मन और निश्छल स्वभाव का। उनका जीवन प्रेम से भरा था और निरंतर निर्मल प्यार लुटाकर भी खाली नहीं होता था।

१९२२ का जबलपुर का झंडा सत्याग्रह देश का पहला सत्याग्रह था और सुभद्रा जी की पहली महिली सत्याग्रही थीं। रोज़-रोज़ सभाएँ होती थीं और जिनमें सुभद्रा भी बोलती थीं। टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता ने अपनी एक रिपोर्ट में उनका उल्लेख 'लोकल सरोजिनी' कहकर किया था।

सुभद्रा जी में बड़े सहज ढंग से गंभीरता और चंचलता का अद्भुत संयोग था। वे जिस सहजता से देश की पहली स्त्री सत्याग्रही बनकर जेल जा सकती थीं, उसी तरह अपने घर में, बाल-बच्चों में और गृहस्थी के छोटे-मोटे कामों में भी रमी रह सकती थीं।

सुभद्रा जी की जीवन-दृष्टि जीवन को नकारने की नहीं, बल्कि स्वीकारने की थी। उनकी कविताएँ दस-ग्यारह वर्षों से पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही थीं। कविता उनके मन की तरंग थी। उनकी कविताएँ मन के भीतर छटपटाते भावों को, सहज-सरल रूप में अभिव्यक्ति देने वाली हैं। उनमें शिल्प का वैसा सौष्ठव नहीं है और न पच्चीकारी का वैसा कोई चमत्कार ही है। अपनी सादगी और सहजता में सुभद्रा जी की कविताएँ लोककाव्य के बहुत निकट की जान पड़ती हैं। उनमें एक देशाभिमानी के साहस, त्याग और बलिदान की भावना है।

प्रफुल्लचंद्र ओझा 'मुक्त' के सहयोग से सुभद्रा का पहला कविता संग्रह मुकुल प्रकाशित हुआ और हिंदी संसार ने दिल खोलकर उसका स्वागत किया।

उस समय हिंदी में आज की तुलना में लेखक कम थे और लेखिकाएँ तो और भी कम थीं। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर ही सुभद्रा जी की कविताओं ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। विशेषतः 'झाँसी की रानी' तो बहुत ही लोकप्रिय हुई थी। अब 'मुकुल' के रूप में उनका संग्रह प्रकाशित होने पर सब ओर से बहुत-बहुत बधाइयाँ मिलीं।

सुभद्रा जी ने मातृत्व से प्रेरित होकर बहुत सुंदर बाल कविताएँ लिखी हैं। इन कविताओं में भी उनकी राष्ट्रीय भावनाएँ प्रकट हुई हैं। 'सभा का खेल' नामक कविता में, खेल-खेल में राष्ट्र भाव जगाने का प्रयास देखिए-

सभा-सभा का खेल आज हम खेलेंगे, जीजी आओ
मैं गांधी जी, छोटे नेहरु, तुम सरोजिनी बन जाओ।
मेरा तो सब काम लंगोटी गमछे से चल जाएगा
छोटे भी खद्दर का कुर्ता पेटी से ले आएगा।
मोहन, लल्ली पुलिस बनेंगे, हम भाषण करने वाले
वे लाठियाँ चलाने वाले, हम घायल मरने वाले।

इस कविता में बच्चों के खेल, गांधी जी का संदेश, नेहरु जी के मन में गांधी जी के प्रति भक्ति, सरोजिनी नायडू की सांप्रदायिक एकता संबंधी विचारधारा को बड़ी खूबी से व्यक्त किया गया है। असहयोग आंदोलन के वातावरण में पले-बढे़ बच्चों के लिए ऐसे खेल स्वाभाविक थे।

प्रसिद्ध हिंदी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध ने सुभद्रा जी के राष्ट्रीय काव्य को हिंदी में बेजोड़ माना है- 'कुछ विशेष अर्थों में सुभद्रा जी का राष्ट्रीय काव्य हिंदी में बेजोड़ है। क्योंकि उन्होंने उस राष्ट्रीय आदर्श को जीवन में समाया हुआ देखा है, उसकी प्रवृत्ति अपने अंतःकरण में पाई है, अतः वह अपने समस्त जीवन-संबंधों को उसी प्रवृत्ति की प्रधानता पर आश्रित कर देती हैं, उन जीवन संबंधों को उस प्रवृत्ति के प्रकाश में चमका देती हैं।... सुभद्राकुमारी चौहान नारी के रूप में ही रहकर साधारण नारियों की आकांक्षाओं और भावों को व्यक्त करती हैं। बहन, माता, पत्नी के साथ-साथ एक सच्ची देश सेविका के भाव उन्होंने व्यक्त किए हैं। उनकी शैली में वही सरलता है, वही अकृत्रिमता और स्पष्टता है जो उनके जीवन में है। उनमें एक ओर जहाँ नारी-सुलभ गुणों का उत्कर्ष है, वहाँ वह स्वदेश प्रेम और देशाभिमान भी है जो एक क्षत्रिय नारी में होना चाहिए।''

सुभद्रा जी की बेटी सुधा चौहान का विवाह प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय से हुआ जो स्वयं अच्छे लेखक थे। सुधा ने उनकी जीवनी लिखी- 'मिला तेज से तेज'।

सुभद्रा जी का जीवन सक्रिय राजनीति में बीता था। वे शहर की सबसे पुरानी कार्यकर्ती थीं। १९३०-३१ और १९४१-४२ में होने वाली जबलपुर की आम सभाओं में स्त्रियाँ बहुत बड़ी संख्या में जमा होती थीं जो हिंदी भाषी क्षेत्रों के लिए एक नया ही अनुभव था। स्त्रियों की इस संख्या के पीछे, स्त्रियों की इस जागृति के पीछे निश्चय ही सुभद्रा जी का हाथ था और उनकी तैयार की हुई टोली के अनवरत उद्योग का भी। सन १९२० से ही वे स्त्रियों की सभाओं में पर्दे के विरोध में, अंधी रूढ़ियों के विरोध में, छुआछूत हटाने के पक्ष में और स्त्री-शिक्षा के प्रचार के लिए बराबर बोलती जा रही थीं। अपनी उन बहनों से बहुत-सी बातों को अलग होते हुए भी वे उन्हीं में से एक थीं। उनके भीतर भारतीय नारी का जो सहज शील और मर्यादा थी, उसके कारण उन्हें वृहत्तर नारी समाज का विश्वास प्राप्त था। विचारों की दृढ़ता के साथ-साथ उनके स्वभाव में और व्यवहार में एक अजीब लचीलापन था, जिसके कारण अपने से भिन्न विचारों और रहन-सहन वालों के दिल में भी उन्होंने घर बना लिया था।

सुभद्रा जी ने कहानी लिखना आरंभ कर दिया था क्योंकि उस समय कोई भी संपादक कविताओं पर पारिश्रमिक नहीं देता था। उनसे संपादकगण गद्य रचना चाहते थे और उसके लिए पारिश्रमिक भी देते थे। समाज की अनीतियों से उत्पन्न जिस पीड़ा को वे व्यक्त करना चाहती थीं उसकी अभिव्यक्ति का उचित माध्यम गद्य ही हो सकता था, अतः सुभद्रा जी ने कहानियाँ लिखीं। उनकी कहानियों में देश-प्रेम के साथ-साथ समाज को, अपने व्यक्तित्व को प्रतिष्ठित करने के लिए संघर्षरत नारी की पीड़ा और विद्रोह का स्वर मिलता है। साल भर में उन्होंने एक कहानी संग्रह 'बिखरे मोती' ही बना डाला। 'बिखरे मोती' छपवाने के लिए वे इलाहाबाद गईं। इस बार भी सेकसरिया पुरस्कार उन्हें ही मिला- कहानी संग्रह 'बिखरे मोती' पर। उनकी अधिकांश कहानियाँ सत्य घटना पर आधारित हैं। देश-प्रेम के साथ-साथ उनमें गरीबों के प्रति सच्ची सहानुभूति मिलती है।

राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और अनवरत जेल यात्रा के बावजूद उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- 'बिखरे मोती (१९३२), उन्मादिनी (१९३४), सीधे-सादे चित्र (१९४७)। इन कथा संग्रहों में कुल ३८ कहानियाँ (क्रमशः पंद्रह, नौ और चौदह)। सुभद्रा जी की समकालीन स्त्री-कथाकारों की संख्या अधिक नहीं थीं।

उनकी कहानियों को किसी भी तराज़ू पर तौल लें, उनमें स्त्री सरोकारों की बात दिखेगी तो वे सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों की कसौटी पर भी खरी उतरेंगी। उनकी कहानियाँ स्वतंत्रता आंदोलन के दौर की नारी का मानसिक पटल प्रस्तुत करती हैं। आज़ादी के पूर्व की भारतीय नारी की दशा और दिशा को सँभालने में वे हमारी बड़ी मदद करती हैं। उनकी नारी केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं चाहती बल्कि सभी प्रकार की गुलामी से मुक्ति चाहती है। वह 'स्वतंत्रता' नहीं, 'स्वराज्य' चाहती है। परतंत्रता नहीं, स्वानुशासन चाहती है। रूढ़ियों-बंधनों से मुक्त होकर वह स्वनियंत्रण में रहना चाहती है। सुभद्रा जी की सभी कहानियों को हम एक तरह से सत्याग्रही कहानियाँ कह सकते हैं। उनकी स्त्रियाँ सत्याग्रही स्त्रियाँ हैं। दलित चेतना और स्त्रीवादी विमर्श को उठाने वाली सुभद्राकुमारी चौहान हिंदी की पहली कहानीकार हैं-

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी।

पंद्रह अगस्त १९४७ को जब देश आज़ाद हुआ तो सबने खुशियाँ मनाईं। सुभद्रा जी ने भेड़ाघाट जाकर वहाँ के खान मज़दूरों को कपड़े और मिठाई बाँटी। उस दिन वे अपना सिरदर्द भूल गई थीं, थकावट भूल गई थीं, आराम करना भूल गई थीं।

गांधी जी की हत्या से सुभद्रा जी को ऐसा लगा कि जैसे वे सचमुच अनाथ हो गई हों। बगैर कुछ खाए-पिए चार मील पैदल ग्वारीघाट तक गईं। जैसे कोई उनके घर का चला गया हो। सुभद्रा जी ने कहा, ''मैंने तो सोचा था कि मैं कुछ दिन गांधी जी के आश्रम में बिताऊँगी लेकिन परमात्मा को वह भी मंज़ूर नहीं था!''

१२ फरवरी १९४८ को गांधी जी की अस्थियाँ नर्मदा में विसर्जन करने के लिए लाई गई। सुभद्रा जी सदलबल गांधीजी की अस्थियाँ लेने मदनमहल स्टेशन गईं और पुलिस का घेरा तोड़ा।

१४ फरवरी को वे नागपुर में शिक्षा विभाग की मीटिंग में भाग लेने गईं। डॉक्टर ने रेलगाड़ी से नहीं, कार से जाने की सलाह दी। १५ फरवरी १९४८ को दोपहर के समय वे जबलपुर के लिए वापस चलीं। सुभद्रा ने देखा कि बीच रास्ते में तीन-चार मुर्गी के बच्चे हैं। उनका बेटा कार चला रहा था। उन्होंने अचकचाकर बेटे से कहा, ''अरे बेटा! मुर्गों के बच्चों को बचाओ!''

मोटर तेज़ी से काटने के कारण सड़क किनारे के पेड़ से टकरा गई। सुभद्रा जी बेहोश हो गईं। सुभद्रा जी ने बस 'बेटा' कहा और लुढ़क गई। अस्पताल के सिविल सर्जन ने देखकर बताया कि उनका देहांत हो गया है। उनका चेहरा एकदम शांत और निर्विकार था जैसे गहरी नींद सोई हों।

१६ अगस्त १९०४ को जन्मी सुभद्रा कुमारी चौहान का देहांत १५ फरवरी १९४८ को ४४ वर्ष की आयु में ही हो गया। एक संभावनापूर्ण जीवन का अंत हो गया।

उनकी मृत्यु पर दादा माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखा कि 'सुभद्रा जी का आज चल बसना प्रकृति के पृष्ठ पर ऐसा लगता है मानो नर्मदा की धारा के बिना तट के पुण्य तीर्थों के सारे घाट अपना अर्थ और उपयोग खो बैठे हों। सुभद्रा जी का जाना ऐसा मालूम होता है मानो 'झाँसी वाली रानी' की गायिका, झाँसी की रानी से कहने गई हो कि लो, फिरंगी खदेड़ दिया गया और मातृभूमि आज़ाद हो गई। सुभद्रा जी का जाना ऐसा लगता है मानो अपने मातृत्व के दुग्ध, स्वर और आँसुओं से उन्होंने अपने नन्हे पुत्र को कठोर उत्तरदायित्व सौंपा हो। प्रभु करे, सुभद्रा जी को अपनी प्रेरणा से हमारे बीच अमर करके रखने का बल इस पीढ़ी में हो।''

जबलपुर के निवासियों ने चंदा इकट्ठा करके नगरपालिका प्रांगण में सुभद्रा जी की आदमकद प्रतिमा लगवाई जिसका अनावरण २७ नवंबर १९४९ को एक और कवयित्री तथा उनकी बचपन की सहेली महादेवी वर्मा ने किया। प्रतिमा अनावरण के समय भदंत आनंद कौसल्यायन, बच्चन जी, डॉ. रामकुमार वर्मा औऱ इलाचंद्र जोशी भी उपस्थित थे। महादेवी जी ने इस अवसर पर कहा, ''नदियों का कोई स्मारक नहीं होता। दीपक की लौ को सोने से मढ़ दीजिए पर इससे क्या होगा? हम सुभद्रा के संदेश को दूर-दूर तर फैलाएँ और आचरण में उसके महत्व को मानें- यही असल स्मारक है।''

१० अगस्त २००९

चिट्ठियां

चिट्ठियां रही हैं हमेशा मेरे घर में

लोहे के एक तार से बंधी हुई

चिट्ठियों से झांकते हैं चेहरे

ससुराल में दुख पा रही बहनों के

दो-दो बेटों के बाप बन गए दोस्तों के

खुश-खुश फूल बांटती हुई लड़कियों के

चिट्ठियों से झांकते हैं दुख गहरे

आंसू अवसाद विषाद

करुणा समाई हुई चिट्ठियों में

तार बंधी हुई चिट्ठियों में ।