Saturday, May 18, 2013

छाया भी साथ छोड़ देती है


कोई स्वाद देर तक नहीं रहता
जबान पर
खट्टे के बाद मीठा
मीठे के बाद खट्टा
करेले के बाद रस
मिर्ची के बाद मिश्री

कोई कविता कोई गीत देर तक नहीं रहता
कोई दृश्य कोई आवाज नहीं टिकती देर तक

कोई रहस्य देर तक नहीं रहता
कोई राज राज नहीं रहता

भूत भी नहीं डराते अब
हर सपना सुबह होने पर टूट ही जाता है
कोई रिश्ता देर तक नहीं रहता
यहां तक कि बेटी अपनी भी पराई हो जाती है
बेटा नौ महीने तक पेट में रहने पर भी भूल जाता है
कि यह औरत उसकी माॅं है
और वह इस के पेट से नहीं किसी चोर दरवाजे से आया है

शाम ढलने पर छाया भी साथ छोड़ जाती है
पतझड़ आने पर पत्ते भी छोड़ देते हैं साथ
पेड़ बेचारा अकेला नंगा खड़ा रहता है

लहलहाते तालाबों का साथ छोड़ देता है पानी
लबलबाते कुएं भी एक दिन सूख जाते हैं
कि उनको कुआं कहने मंे भी शर्म आती है

साल के कुछ दिन कुछ महीने तो
नदी भी बस नामकी नदी रह जाती है
कोई भी कुछ भी देर तक नहीं रहता

कलम इस कदर सूख जाती है अक्सर
कि "अ" अनार का भी नहीं लिखा जाता।

एक शब्द भी कभी कभी ऐसा जानलेवा हो जाता है
कि मरने के बाद ही बाहर निकलता है।

अपने हाथों पर पाले तोते ही एक दिन उड़ जाते हैं
ग्यारह दिन का कुंभ भी आखिरकार एक दिन खत्म होता है
महाकाव्य का भी आखिरकार कोई अंतिम सर्ग होता ही है
महापुरूष का भी कोई आखिरी शब्द होता ही है।
महानायक को भी एक दिन कहना पड़ता है पैक-अप
शो मस्ट गो ओन कहने वाले का भी
आखिर शो कब तक चल सकता है।
मीलों तक चलने के बाद एक दिन
जीरो किलोमीटर आता ही है।

पार करने के बाद पुल भूल जाते हैं राहगीर
नाव भूल जाते हैं केवट।

एक दिन जब में सिक्के खनकना  भूल जाते हैं
एक दिन अपनी ही सांस की आवाज सुनाई देनी बंद हो जाती है।

एक दिन भूल जाते हैं हम सब बचपन का पहाड़ा
पंडित ऐन हवन के वक्त भूल जाते हैं श्लोक
और जिन्दगी के मायने कई बार इतने जटिल निकलते हैं
कि किसी शब्दकोष में  उनका कोई अर्थ नहीं निकलता।

हर चालीस सेकंड में कहीं न कहीं खत्म हो जाता है
एक भरपूर जीवन
लहलहाती हुई फसलें रातोंरात बर्बाद हो जाती हैं
मजबूत से मजबूत भवन जमींदोज हो जाते हैं।
 

Sunday, May 12, 2013

लौटना मां के पास

नवहिंदुस्तान से साभार:
 
लौटना मां के पास
राजेन्द्र उपाध्याय 
 
मां के पास लौटता हूं बार-बार
बगैर किसी आमंत्रण के
कभी भी किसी भी वक्त - बेवक्त
कभी कुछ खाये, कभी कुछ भी न खाये
कभी-कभी तो ऐसे भी लौटता हूं जैसे
बरसों से कुछ भी न खाया हो।
 
खाकर भी गया हूं
तो भी खाकर आया हूं
पहनकर गया हूं
तो भी पहनकर आया हूं
मां के पास गरीबी में भी
मेरे लिए रहा है कुछ न कुछ
मूड़ी हो या भुनी हुई हरी मिर्च
वही रही मेरे लिए अमृत
जाता हूं कई बार पहनकर सूट-बूट
और पाता हूं जैसे मां के सामने कुछ भी नहीं पहन रखा है
वैसे ही हूं जैसे उसने मुझे पैदा किया होगा। 
 
अक्सर सपने में नहलाती है वह
जब धूल में लथपथ धूप में लाल होकर गया हूं
मलहम लगा रही है मेरी खरौंचों पर जहां-तहां
यह देह जितनी मेरी उतनी ही मां की है
मां के पास गया हूं अगहन में, माघ में, भादों में, जाड़े में, बरसात में
जनवरी में, जुलाई में
कभी एकदम भोर में, तो कभी सरेशाम
गर्मियों में तपती छत पर ठंडे तकिये की तरह मां का हाथ है सिर पर
सर्दियों में वह गरम रजाई
और मैं वहीं बचपन का लड़का जिसका कोई नाम नहीं।