Sunday, September 16, 2012

कौन ललितपुर

जनसत्ता 26 मई, 2012: ललितपुर के प्लेटफार्म नंबर तीन पर सुबह ही आ गया था। झांसी के पास इस जनपद के स्टेशन पर सब बड़ी गाड़ियां नहीं रुकती हैं। हीराकुंड एक्सप्रेस विशाखापत्तनम से आकर अमृतसर जाने वाली थी। मैं उसी का टिकट लेकर बैठा था। सभी गाड़ियां विलंब से चल रही थीं। गोंडवाना एक्सप्रेस को रात साढ़े ग्यारह बजे आना था। उसकी सवारियां रात भर इंतजार करती रहीं। हीराकुंड एक्सप्रेस पहले सही समय पर थी। बाद में घंटा भर देर हुई और अब धूप निकल आने के बाद भी मैं वहां बैठा इंतजार कर था। वहां नहीं रुकने वाली गाड़ियां धड़धड़ाती हुई गुजर रही थीं। मुंह अंधेरे ही बुंदेलखंड पैलेस होटल से चला आया था। वहां एक बरात के साथ ठहरा था। बरात बस में बैठ कर चली गई और मैं बुंदेलखंड पैलेस में अकेला रह गया था। नींद नहीं आ रही थी। बरात के जाने के बाद का सूनापन ‘भांय-भांय’ कर रहा था। खाली पड़े गिलास, प्लेटें, साबुन, कंघे, पान-मसाले के पाउच आदि रह गए थे।

होटल से निकल कर चाय पीने गया। स्टेशन सामने ही था, छोटा-सा। विकलांगों के लिए विशेष सुविधा वाला। शौचालय भी विकलांगों का खयाल रखने वाला था। पर उनके रेल में चढ़ने की कोई सुविधा नहीं थी। डिब्बे के तल के मुकाबले प्लेटफार्म नीचे था। तीन-चार सीढ़ियां चढ़ कर डिब्बे में चढ़ते-उतरते हुए पैर फिसलने का डर होता है। सामान लेकर चढ़ने में हालत खराब हो जाती है। अमेरिका में ‘एमट्रैक’ रेल से ईस्टकोस्ट से वेस्टकोट, सनफ्रांसिस्को से न्यूयार्क तक की यात्रा की थी। वहां रेल के भीतर तो गरम पानी सहित सब सुविधाएं थी हीं, प्लेटफार्म पर डिब्बे में चढ़ने के लिए छोटी चौकी भी रखी थी। साफ-सफाई थी। लेकिन अपने यहां की बात निराली है। जो है सो रेल की पटरियां हैं। शौचालय आदि की सुविधाओं के लिए फिर से सीढ़ियां चढ़ कर पुल पार कर एक नंबर प्लेटफार्म पर जाना पड़ता है।

अचानक कुछ औरतें एक पैसेंजर गाड़ी से लकड़ियां लेकर उतरीं। पैरों में ‘स्लीपर’ थे जो घिस कर पैरों की तरह ही हो गए थे। तन पर बरसों पुरानी साड़ियां, गंदी मैली-कुचैली। चार महिलाएं थीं और उनके आठ गट्ठर थे सूखी लकड़ियों के। एक-एक कर ले जा रही थीं सीढ़ियां चढ़ कर पुल से, पटरी पार करके नहीं। इसी बीच एक ‘उच्च पार्सल यान’ गुजरी। पूरी बंद थी। यात्री गाड़ी जैसे ही बंद डिब्बे थे, पर खिड़कियां नहीं। दरवाजे सीलबंद। एक मालगाड़ी भी गुजरी। पीछे गार्ड झंडी दिखाता हुआ। गार्ड की भी क्या जिंदगी है... चलते रहो! ‘एकला चलो रे...!’ रवि बाबू का यह गीत गार्ड ही सच्चे अर्थों में रूपायित करता है! कितनी बोरियत होती होगी उसकी जिंदगी में! कोई पुकारता नहीं, किसी से बात नहीं कर सकते। टीवी-रेडियो कुछ नहीं। खाली डिब्बे में बैठे-बैठे बोरियत हो जाती है, पर पूरी ट्रेन के पीछे वह अकेला गार्ड, लोहे के डिब्बे में बैठा।

बहरहाल, वे औरतें लकड़ियां ले जा रही थीं। एक दूसरे की मदद करती। एक औरत आखिरकार हार कर पटरी से पार करने लगी। मैं डर रहा था, वह नहीं। घिस चुकी चप्पल पहने कर पटरी पार करने पर पत्थर चुभते होंगे। अगर वह चप्पल भी टूट या फंस गई पटरी के बीच या वह खुद गिर गई और ट्रेन आ गई तो क्या होगा! ‘सदियों’ पुराने उन पैरों में सदियों पुरानी चप्पलें थीं! फिर भी वे घिस रही थीं, टूट नहीं रही थीं। वे इन लकड़ियों से कितना क्या कमा लेंगी? एक तरफ इस देश की औरतें कितनी हाड़तोड़ मेहनत करती हैं, वह भी जान जोखिम में डाल कर। दूसरी ओर, धन के भूखे हमारे कई नेता हैं जो राज करते हैं राजधानियों में। महानगर की महिलाओं को सब्जी काटने या आटा गूंधने के लिए भी ‘हेल्पर’, यानी नौकरानी चाहिए। राजधानी में चमचमाती कारें हैं, महंगे मोबाइल हैं। कीमती जूते पहने गहनों से लदी महिलाएं हैं, महंगे पर्स लिए। और वे...! वे कब तक लकड़ियां इसी तरह बीन कर घिसी हुई चप्पल पहने पटरियां पार करती रहेंगी, दो जून की रोटी और नमक के लिए?

यह कौन-सा ललितपुर है? बुंदेलखंड के किस भूभाग में? क्या यह इसी भारतवर्ष का हिस्सा है? देश को आजाद हुए कितने बरस हुए, क्या इन्हें पता है? ‘मनरेगा’, आरटीआई, टूजी घोटाला क्या है? कितने हजार करोड़ का घोटाला कर डाला हमारे कर्णधारों ने! और ये औरतें... इसी तरह पटरी पार करते समय किसी दिन ऊपर चली जाएंगी! कौन इन्हें याद रखेगा! मेरी गाड़ी आ गई। मैं अपनी आरक्षित बर्थ तक पहुंचा। एक सरदार जी अपना केश खोले पसरे हुए थे। अमृतसर जा रहे थे। उन्हें थोड़ी-सी जगह देने को कह कर बैठ जाता हूं। खिड़की से बाहर ललितपुर, बुंदेलखंड जा रहा है। हरी-भरी धरती तेजी से पीछे छूट रही है, पुल के नीचे नदी बह रही है। सुंदर दृश्य है। लकड़ियों वाली उन औरतों को मैं भूल रहा हूं। मेरी रेल लकदक राजधानी की ओर जा रही है। मुझे ललितपुर से क्या?

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