नवहिंदुस्तान से साभार:
लौटना मां के पास
राजेन्द्र उपाध्याय
राजेन्द्र उपाध्याय
मां के पास लौटता हूं बार-बार
बगैर किसी आमंत्रण के
कभी भी किसी भी वक्त - बेवक्त
कभी कुछ खाये, कभी कुछ भी न खाये
कभी-कभी तो ऐसे भी लौटता हूं जैसे
बरसों से कुछ भी न खाया हो।
बगैर किसी आमंत्रण के
कभी भी किसी भी वक्त - बेवक्त
कभी कुछ खाये, कभी कुछ भी न खाये
कभी-कभी तो ऐसे भी लौटता हूं जैसे
बरसों से कुछ भी न खाया हो।
खाकर भी गया हूं
तो भी खाकर आया हूं
पहनकर गया हूं
तो भी पहनकर आया हूं
तो भी खाकर आया हूं
पहनकर गया हूं
तो भी पहनकर आया हूं
मां के पास गरीबी में भी
मेरे लिए रहा है कुछ न कुछ
मूड़ी हो या भुनी हुई हरी मिर्च
वही रही मेरे लिए अमृत
मेरे लिए रहा है कुछ न कुछ
मूड़ी हो या भुनी हुई हरी मिर्च
वही रही मेरे लिए अमृत
जाता हूं कई बार पहनकर सूट-बूट
और पाता हूं जैसे मां के सामने कुछ भी नहीं पहन रखा है
वैसे ही हूं जैसे उसने मुझे पैदा किया होगा।
और पाता हूं जैसे मां के सामने कुछ भी नहीं पहन रखा है
वैसे ही हूं जैसे उसने मुझे पैदा किया होगा।
अक्सर सपने में नहलाती है वह
जब धूल में लथपथ धूप में लाल होकर गया हूं
मलहम लगा रही है मेरी खरौंचों पर जहां-तहां
यह देह जितनी मेरी उतनी ही मां की है
जब धूल में लथपथ धूप में लाल होकर गया हूं
मलहम लगा रही है मेरी खरौंचों पर जहां-तहां
यह देह जितनी मेरी उतनी ही मां की है
मां के पास गया हूं अगहन में, माघ में, भादों में, जाड़े में, बरसात में
जनवरी में, जुलाई में
कभी एकदम भोर में, तो कभी सरेशाम
गर्मियों में तपती छत पर ठंडे तकिये की तरह मां का हाथ है सिर पर
सर्दियों में वह गरम रजाई
और मैं वहीं बचपन का लड़का जिसका कोई नाम नहीं।
जनवरी में, जुलाई में
कभी एकदम भोर में, तो कभी सरेशाम
गर्मियों में तपती छत पर ठंडे तकिये की तरह मां का हाथ है सिर पर
सर्दियों में वह गरम रजाई
और मैं वहीं बचपन का लड़का जिसका कोई नाम नहीं।
No comments:
Post a Comment