Sunday, September 16, 2012

विकल है कोलकाता

(जनसत्ता 24 जुलाई, 2012)

कुछ समय पहले कोलकाता जाना हुआ। 1983 में दिल्ली जाने से पहले इसी ‘कलकत्ता’ की बसों, ट्राम या मिनी बस में खूब धक्के खाए थे। पैदल झोला लटका कर घूमा। तब ‘मूड़ी’ वाले बहुत घूमते थे। अब नहीं दिखते। कहां चले गए वे ‘मूड़ी’ वाले, फुचके (गोलगप्पे) वाले! जगह-जगह शॉपिंग मॉल खुल गए हैं। दुकानों पर चिप्स वगैरह मिल रहे हैं। निर्जन इलाके आबाद हो गए हैं। चौराहों पर भीड़भाड़ है। गाड़ियां ज्यादा हैं। पीली-पीली टैक्सियां दौड़ रही हैं। साइकिल पर कम लोग जाते हैं। कई फ्लाईओवर बन गए हैं, फिर भी जाम से निजात नहीं!

हंगरफोर्ड स्ट्रीट (पता नहीं कौन थे ये अंग्रेज) पर सरकारी सर्किट हाउस के कमरा संख्या 2/3 में ठहरा। दूसरी मंजिल पर उस कमरे के बाहर तेईस नंबर लिखा है। लेकिन यह समझ नहीं आया कि उसे 2/3 क्यों बोलते हैं। डेढ़ सौ रुपए में डबल बेड का बड़ा-सा कमरा था। खिड़की के बाहर मिंटो पार्क दिख रहा था। वहां फव्वारा चल रहा था और थोड़े अंधेरे में एक प्रेमी जोड़ा बैठा था। कोलकाता में प्रेम ऐसे ही होता है, बगीचों में। ज्ञानेंद्रपति की एक कविता ‘ट्राम में एक याद’ याद आ रही है- ‘चेतना पारीक, कैसी हो? ...क्या अब भी जिससे करती हो प्यार, उसे दाढ़ी रखाती हो? ...उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है/ भीड़भाड़ धक्का-मुक्का ढेल-पेल ताम-झाम है/ ट्यूब रेल बन चल रही ट्राम है/ विकल है कोलकाता दौड़ता अनवरत अविराम है...।’

बगल में बेल व्यू नर्सिंग होम है, जहां सत्यजीत रे का देहांत हुआ था। अब उनके नाम पर वहां सत्यजीत रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट है। इसी इलाके में भारतीय भाषा परिषद है। वहां प्रभाकर माचवे के साथ चार सौ रुपए महीने की तनख्वाह पर काम करता था। तब इतने कम पैसे होते थे कि मौज नहीं कर पाता था। अब पास में पैसे हैं तो वह उत्साह नहीं। फिर भी सोचा कि जितने दिन वहां रहना है, ठाठ से रहूंगा। बांग्ला फिल्म देखूंगा। कम से कम समझ तो लेता ही हूं! अब वहां पारंपरिक बंगाली धोती-छतरी वाले लोग नहीं दिखते। सब पैंट और बुशर्ट पहनते हैं। लड़कियां भी जीन्स पहने रहती हैं। शायद कोलकाता की अपनी पहचान खो रही है। कुछ समय पहले श्रीनगर में भी यही नजारा देखने को मिला था। जबलपुर, कानपुर, रायपुर... हमारे देश के सब शहर एक जैसे हो रहे हैं। खानपान भी सब वही। इडली डोसा, कचौड़ी, समोसा, पास्ता, चाउमीन... वगैरह।

 नीचे नाश्ता करने उतरा। स्वागत कक्ष के काउंटर पर बांग्ला के तीन-चार अखबार थे। अंग्रेजी के ‘द टेलीग्राफ’ के ऊपरी हिस्से पर ‘कलकटा’ लिखा था। वहां बैठे बंगाली बाबू से मैंने पूछा- ‘ऐसा क्यों?’ उसने कहा- ‘बदला नहीं होगा; रह गया होगा!’ हिंदी कहानीकार अशोक सेकसरिया से मिलने गया। उनके यहां भी ‘द टेलीग्राफ’ था। उनका ध्यान दिलाया तो वे बोले- ‘इस पर ध्यान ही नहीं दिया कि ‘टेलीग्राफ’ ने क्यों नहीं बदला।’ वहां का उच्च न्यायालय अब अब भी ‘कलकत्ता’ हाईकोर्ट ही है। जैसे ‘बंबई’ हाईकोर्ट और ‘बंबई’ शेयर बाजार अभी ‘मुंबई’ और ‘मद्रास’ हाईकोर्ट अब तक ‘चेन्नई’ नहीं हुआ है।

अशोक सेकसरिया सोलह, लार्ड सिन्हा रोड पर रहते हैं। आसपास विशाल अट्टालिकाएं, वातानुकूलित बाजार और बीएसएफ का दफ्तर है। चारों ओर से घिरे उस मकान में केवल शब्दों के सहारे उन्होंने अपनी अब तक की उम्र गुजार दी। एक चारपाई पर लेटे थे। दुग्धधवल दाढ़ी, अगल-बगल चार-पांच अखबार, कुछ पुरानी किताबें। उस दिन विवेकानंद जयंती थी। बीच में कृष्ण बिहारी मिश्र का फोन आया-  ‘मेरा विवेकानंद पर लेख देखा! नहीं देखा! देखिए।’

उनसे फिर आने का वादा करके निकलता हूं। अब बिड़ला के नाम पर बने तारामंडल से मिनी बस पकड़ कर लेक रोड जाना था। वहीं कई लोगों को सड़क किनारे फुटपाथ पर ही नहाते देखा। शायद बहुत सारे लोगों के पास स्नानघर जैसी सुविधा नहीं थी। मिंटो पार्क का नाम बदल कर भगत सिंह उद्यान और भारतीय भाषा परिषद के पास महाराणा प्रताप उद्यान करने से क्या कोलकाता की तस्वीर बदल जाएगी? वहां का बांग्ला मानुष कहां बिला गया? धोती-कुर्ता पहने, बारिश हो या नहीं हो, हाथ में छड़ी या छतरी लिए जो पैदल ही सड़क पार करता था! आज सिर्फ गाड़ियां ही गाड़ियां!

खैर, कोलकाता की एक ट्राम में बैठ गया। साढ़े चार रुपए का टिकट लिया। कंडक्टर ने अठन्नी वापस की। कोलकाता में अभी भी अठन्नी बची है। रवींद्र सरणी पर रवींद्र भारती विश्वविद्यालय है। यहां कला वीथिका देखने के लिए दस रुपए का टिकट लगता है। 1961 में रवींद्र शताब्दी के अवसर पर जवाहरलाल नेहरू यहां आए थे और इस विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी थी। रवींद्रनाथ के लिखने-पढ़ने, खाने-बैठने आदि के कमरे देखे। वहां कहीं कोई पोखर नहीं था। होता तो कितना अच्छा होता! उसमें कमल खिले होते।
रवींद्र सरणी में साड़ियों की बहुत सारी दुकानें हैं। ट्राम, हाथ रिक्शा, टैक्सी, स्कूटर सब एक साथ चलते हैं। एक ‘महारास’ निरंतर जारी रहता है कोलकाता में!

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