Tuesday, April 13, 2010

नटराज उदयशंकर के घुंघरुओं की आवाज

उदयपुर में जन्मे महान् कलाकार उदयशंकर वास्तव में नटराज थे। उदयशंकर के बारे में कहा जाता है कि देवताओं ने उन्हें अपना रूप दिखाने के लिए इस धरती पर भेजा था। इसीलिए जिन-जिन लोगों ने उनकी नृत्य मुद्राएँ देखी है- उन्हें उनमें दिव्यता का दर्शन तो होता था। यह भी लगता था कि जैसे साक्षात् इन्द्र, देव, गंधर्व, शिव इस धरती पर उतर आए हैं।
जब भी किसी शहर में उनके प्रदर्शन के पोस्टर लगते थे तो पूरे शहर में जैसे एक हंगामा सा हो जाता था कि उदयशंकर आ रहे हैं चाहे वह दिल्ली हो, लखनऊ हो, मुम्बई हो, कोलकाता हो या चैन्नई हो। यहाँ तक कि लंदन, पेरिस और न्यूयार्क में भी एक हलचल सी मच जाती थी। लोग उनके और उनकी मंडली के प्रदर्शन देखने को उत्सुक रहते थे। उनके शो हर जगह हाउसफुल जाते थे।

भारतीय शास्त्रीय नृत्य परम्पराओं से ज्यादा किसी औपचारिक प्रशिक्षण और शिक्षा-दीक्षा के बगैर भी उदयशंकर ने जैसे इन शास्त्रीय नृत्य परम्पराओं का पुनराविष्कार किया और शताब्दियों से दबी-ढकी नृत्य पद्धतियों की पुनः पहचान की। रामायण, महाभारत, जैसे मिथकों से प्रेरणा लेने के साथ साथ उन्होंने जनजातीय नृत्य रूपों की भी पहचान की। डांस, बैले और शैडो प्ले (छाया नाटक) भी उन्होंने रचे। मिथकों से प्रेरणा लेने वाले उदयशंकर आज स्वयं एक मिथक बन चुके हैं। अवतारों पर नृत्य करने वाले आज खुद एक अवतार बन गए हैं।

८ दिसम्बर १९०७ को उदयशंकर का जन्म राजस्थान के उदयपुर में हुआ था इसलिए उनका नाम उदयशंकर रखा गया। जैसोर (बंगलादेश) के मूल निवासी उदयशंकर के पिता पण्डित श्याम शंकर राजस्थान चले आए थे। जहाँ वे झालावाड महाराज के निजी सचिव थे। झालावाड के महाराजा कलाप्रेमी और कला संरक्षक थे। शुरू में उदय का मन किताबों में नहीं लगा। माता-पिता को उनकी चिन्ता रहती थी। तब उन्हें पता नहीं था कि उदय में जन्मजात कलाकार छुपा बैठा है। वे अपनी माँ हेमांगिनी के साथ जहाँ भी जाते वहाँ नृत्य समारोहों में जरूर जाते और उनका अध्ययन करते। बनारस में गाजीपुर के पास नसरतपुर गाँव में, राजस्थान, बंगाल और अन्य जगहों पर भी वे अहीरों, चमारों, भीलों और मारवाडयों के नृत्य देखते। शुरू में चित्रकला के प्रति उनके रुझान को देखते हुए उनके पिता ने १९१८ में उन्हें जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में भेजा, जहाँ उन्होंने असाधारण रुचि दिखाते हुए दो वर्ष में ही पाठ्यक्रम पूरा कर लिया। संगीत में गहरी रुचि होने के कारण मुम्बई में वे गंधर्व महाविद्यालय भी जाते थे।

१९२० में उदयशंकर रॉयल कॉलेज ऑफ आर्ट्स, लंदन में पढने गए। रॉयल कॉलेज के प्रेसीडेंट सर विलियम रोथेंसटीन कलाप्रेमी विद्वान् थे। उन्होंने उदयशंकर को ब्रिटिश म्यूजियम के क्यूरेटर के पास भेजा। ब्रिटिश म्यूजियम में उदय ने कला पर सैकडों किताबें पढीं और उनकी आँखें खुल गई। उन्हें पहली बार पता लगा कि हमारे देश में भी कला की अकूत सम्पदा है। हमारे देश में भी कला, संगीत, संस्कृति और नृत्य की महत्त्वपूर्ण विरासत छिपी है, जिसे खोजने, पहचानने की जरूरत है। कला के अंतिम वर्ष में प्रथम श्रेणी पाने वाले पहले भारतीय बने और उन्हें रोम में अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति मिली।

उदयशंकर के कॉलेज में किए गए एक नृत्य से लेडी डौरावती टाटा भी बहुत प्रभावित हुईं और उन्होंने उन्हें भारत दिवस पर लंदन के वैम्बले थियेटर में प्रदर्शन करने को कहा। सम्राट् जार्ज पंचम ने उनके शिव नृत्य को देखा और बधाई दी। शंकर के पिता जी विद्वान् होने के साथ साथ राजनीतिज्ञ भी थे। वे लंदन में १९१४ से १९२४ तक रहे। तभी रूसी नर्तकी अन्ना पावलोवा उदय के सम्फ में आई और उन्होंने उदयशंकर की मूल मुद्राओं पर आधारित प्रख्यात चित्र �अजंता� बनाया जिसमें उदयशंकर खुद अजंता की एक मूर्ति बने हुए हैं। उन्होंने ही उदयशंकर को राधा कृष्ण और हिन्दू विवाह नृत्य संरचनाएँ करने को उकसाया। इसमें उदयशंकर कृष्ण बने और पावलोवा राधा बनी। रॉयल आपेरा हाउस में यह नृत्य खूब हिट हुआ। पावलोवा उन्हें अपने नृत्य दल में शामिल करके अमरीका ले गईं।

१९२९ में उदयशंकर जब भारत लौटे तो एक चित्रकार की हैसियत से नहीं, बल्कि एक नर्तक की हैसियत से, हालाँकि चित्रकला में उनके पास रॉयल कॉलेज की डिग्री थी। विलियम रोथेंस्टीन के शिष्य को नर्तकी पावलोवा ने हडप लिया था। लेकिन पावलोवा सही थी। किसी चित्रकार और मूर्तिकार के पास ऐसी दिव्य देह नहीं थी, जैसी उदयशंकर के पास थी। वे जन्मजात नर्तक थे। भव्य दिव्य देह के स्वामी रवीन्द्रनाथ ने भारतीय कविता को अवनीन्द्रनाथ ने भारत की चित्रकला को विश्व के सामने प्रस्तुत करने में जो काम किया वही काम उदयशंकर ने भारतीय नृत्य के लिये किया। ऐसे समय उदयशंकर ने भारतीय नृत्य को नई शास्त्रीय ऊँचाइयाँ प्रदान की जब नृत्य को नाचने गाने वालियों, बाइयों, देवदासियों और मिरासियों का काम माना जाता था। उदयशंकर के तीन भाई देवेन्द्र, राजेन्द्र, और रविशंकर। पं. रविशंकर प्रसिद्ध संगीतकार हैं। उन्होंने अपने दादा यानी बडे भाई की कला के बारे में खूब लिखा है।

१९३५ में उदय की मुलाकात �अमला नंदी� से हुई जो पेरिस गई हुई थीं। वे भी उनकी मण्डली में शामिल हुई और १९४२ में उन्होंने विवाह कर लिया। अमलाशंकर ने अभी कुछ वर्ष पहले ८२ वर्ष की उम्र में उदयशंकर जन्म शताब्दी समारोह में दिल्ली के कमानी सभागार में नृत्य प्रस्तुत किया था। ममताशंकर प्रख्यात अभिनेत्री इनकी बेटी हैं। १९३७ में उदयशंकर जब कलकत्ता लौटे तो रवीन्द्रनाथ ने उनका भरपूर स्वागत अभिनंदन किया। तब वे अपनी नृत्य मुद्राओं से विश्वविजय कर चुके थे। अल्मोडा में जब संस्कृति केन्द्र खोलने की बात आई तो पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने भरपूर समर्थन दिया। १९३७ में हिमालय की गोद में अल्मोडा में नृत्य प्रशिक्षण केन्द्र खोला गया।

बर्फीले हिमशिखरों की छाया में अल्मोडा में पहली मार्च १९४० को जो उदयशंकर भारत संस्कृति केन्द्र खोला गया। उसमें सचमुच भारत की संस्कृति का समूचा प्रतिनिधित्व था। तंजौर, केरल, असम, गुजरात, उडीसा, संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, काठियावाड के विभिन्न नृत्य समूहों के गुरु शिष्य यहाँ कला साधना के लिए एकत्र हुए। शिष्यों को नृत्य नाट्य की ही नहीं नृत्य संरचना (कोरियोग्राफी) की भी ट्रेनिंग दी गई। वस्त्र संरचना, पोशाक, मुखौटे, मेकअप और मंच सज्जा की भी दीक्षा दी गई। उदयशंकर को २८० तरह से तबले बजाने आते थे। अल्मोडा का सारा खर्च उदय के विदेशी प्रशंसक उठाते थे। लंदन के उनके प्रशंसक उनकी विशेष मदद करते थे। रविशंकर ने भी इनकी मण्डली के लिए नृत्य किया था। कोष इकट्ठा करने के लिए इस मण्डली ने भारत दौरा किया था। कार्तिकेय, इन्द्र, चित्रसेना, शिव-ताण्डव, शिव-पार्वती, उषा और चित्रलेखा, देवयानी और शर्मिष्ठा जैसे मिथकीय चरित्र के साथ-साथ आधुनिक मनुष्य की विडम्बनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए श्रम और मशीन, जीवन चक्र आदि का भी मंचन किया। साथ ही कुमाऊँ, मारवाडी, भील और किसान नृत्य करके जनजातीय रूपों को अभिव्यक्ति प्रदान की। भारतीय कलारूपों को उन्होंने अपनी समस्त अस्मिता और राष्ट्रीयता के साथ अभिव्यक्त किया, साथ ही उन्हें एक वैश्विक ऊँचाई दी। अल्मोडा केन्द्र से ही गुरुदत्त, शांतिवर्धना, सिम्मी, अमला, सचिन शंकर (बेटा), मोहन सेहगल, सुन्दरी, श्रीधराणी, प्रभात गांगुली, जौहरा सहगल, पं. नरेन्द्र शर्मा, देवीलाल सामर, भगवान आदि कई प्रख्यात शिष्य दीक्षित होकर निकले, लेकिन वित्तीय मजबूरियों के चलते अल्मोडा संस्कृति केन्द्र बंद कर देना पडा। खर्च का बोझ ज्यादा हो गया था अन्य व्यावहारिक समस्याएँ आ खडी हुई थीं।

उदयशंकर ने अपनी सृजनात्मकता को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए �कल्पना� फिल्म का निर्माण किया, जिसके गीत महाकवि पं. सुमित्रानन्दन पंत ने लिखे थे। उदयशंकर ने उसका निर्देशन, निर्माण तो किया ही पटकथा भी लिखी। इसमें उनके व्यक्तित्व की समग्रता और प्रतिभा का समुच्चय है। इस महान् प्रतिभा का केवल आज यही दस्तावेज हमारे पास बचा है। चूँकि इसमें उनके महान् कला व्यक्तित्व के कुछ टुकडे ही जगह जगह जोडे गए थे, अतः व्यावसायिक रूप से यह फिल्म बुरी तरह पिट गई। �कल्पना� में उदय और अमला की जोडी थी।

मद्रास के सांस्कृतिक वातावरण से प्रभावित होकर उदयशंकर ने वहाँ भी एक घर बनाया, जिसमें एक सभागार भी था। वहाँ भी एक नृत्यमण्डली बनाई और चीन, यूरोप तथा अमरीका का भ्रमण किया।

१९६० में वे कलकत्ता चले गए। वहाँ उन्होंने एक अन्य मण्डली बनाई। लेकिन वहाँ उम्र असर करने लगी थी। स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। असम में नृत्य प्रदर्शन के दौरान ही उन्हें हृदयाघात पडा। ठीक होते ही वे अमरीका दौरे पर चले गए, जहाँ १९६८-६९ में उन्हें पक्षाघात का दौरा पडा। सेनडिएगो अस्पताल में ठीक होने के बाद वे भाई रविशंकर के साथ लासएंजेल्स में रहे। गिरते स्वास्थ्य के बावजूद उनकी रचनात्मकता और कल्पनाशीलता मंद नहीं पडी थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर जन्मशताब्दी के लिए १९६९ में उन्होंने �सामान्य क्षति� नाम का भव्य प्रदर्शन किया था।

बुद्ध की २५०० वीं जयन्ती पर बुद्ध के जीवन पर छायानाटक तैयार किया। ७१ बरस की पकी उम्र में भी शैक्सपीयर की नई प्रस्तुति तैयार की। उनकी कला टैगोर के शब्दों में कहें तो केवल प्रान्तीयता की चौहद्वी में सिमटकर नहीं रही।

उदयशंकर को देश-विदेश से अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। संगीत नाटक अकादमी की रत्न सदस्यता, विश्वभारती, विश्वविद्यालय शान्तिनिकेतन से देशिकोत्तम और १९९७ में पद्म विभूषण मिला। रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय के वे पहले नाटक नृत्य डीन बने। इसी विश्वविद्यालय ने उनकी स्मृति में एक सभागार का नाम उनके नाम पर रखा और वहाँ उदयशंकर पीठ की स्थापना की। लेकिन आखिरी दिन उनके दुःखभरे बीते। नेहरू फैलोशिप के लिए उनके आवेदन को ठुकरा दिया गया। कलकत्ता के एक अंधेरे कोने में केवल अपने रसोइए और एक दो नौकर के साथ वे गुमनामी में जी रहे थे। बीमारी में उन्हें अकेलेपन का संताप डस रहा था। उन्हें उनके अपने परिवार ने अकेले छोड दिया था और उन लोगों ने भी जो उनके अच्छे दिनों में तो उनके साथ थे। भाई रविशंकर ने विदेशों में उनके रहने की पक्की व्यवस्था की थी पर उदय वहाँ गए नहीं। लाखों करोडों में खेलने वाला महान् कलाकार अब भूखों मर रहा था। पहाडों की ऊँचाईयों पर खिला, सोने सा दमकता सूरज अब कलकत्ता के फ्लैट में धीरे धीरे अस्त हो रहा था। राजा रानी की सोने की पोशाकें अब धूल खा रही थीं।

२६ सितम्बर १९७७ की सुबह छह बजकर १० मिनट पर आखिर मृत्यु जब आई तो उन्होंने उसे गले लगा लिया, क्योंकि वही अब उन्हें कष्ट से, अकेलेपन की यातना से मुक्ति दिला सकती थी। उन्होंने अपने बेटे, बेटी और पत्नी को आशीर्वाद दिया और चले गए अंजाने पथ की ओर। नृत्य परम्परा को आगे बढने के लिए चले गए। पश्चिम बंगाल सरकार ने राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंत्येष्टि की। बंगाल के सरकारी दफ्तर बंद कर दिए गए। मृत्यु ने उन्हें गुमनामी के अंधेरे से निकाला, फिर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचा दिया था। रवीन्द्र भवन में उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने हजारों लोग पहुँचे। आकाशवाणी और दूरदर्शन पर उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों की भीड लग गई। डाक विभाग ने उदयशंकर और उनकी नृत्यमण्डली पर टिकट निकाले। उनका ताण्डव नृत्य का टिकट बहुत प्रसिद्ध हुआ। सत्यजीत राय ने उदयशंकर पर वृत्तचित्र बनाने की कोशिशें की, लेकिन वह काम नहीं हो पाया।

अमला शंकर और ममता शंकर कोलकाता में उदयशंकर नृत्य विद्यालय चलाते हैं। वे उदयशंकर की नृत्य परम्परा को आगे बढा रहे हैं। नटराज अब नहीं हैं, लेकिन उनके घुंघरुओं की आवाज अब भी सुनी जा सकती है। संगीत नाटक अकादमी ने उनकी जन्म शताब्दी पर २००१ में दिल्ली में एक सप्ताह की नृत्य नाटक सभाएँ आयोजित की थीं जिसमें इस जीनियस के काम की फिर पहचान की गई थी।

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