Tuesday, April 13, 2010

निरर्थकता के बीच कविता

इसी वर्ष ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित शीर्ष कवि कुंवर नारायण अपने खंडकाव्य 'वाजश्रवा के बहाने' में कहते हैं कि 'जीवन में संघर्ष ही संघर्ष नहीं हैं। इस तरह चित्रित करने से कि जीवन सतत संघर्षमय ही है उसकी जरुरत से ज्यादा क्रूर छवि उभरती है। उसमें मार्मिक समझौते और सुंदर सुलहें भी हैं। इस विवेक को प्रमुख रखकर भी जीवन को सोचा और चित्रित किया जा सकता है।' हमारे युवा कवियों को और अधेड़ और बुजुर्ग कवियों को भी कुंवर जी से प्रेरणा लेनी चाहिए जो जीवन में और कविता में भी संघर्ष ही संघर्ष देखते हैं। आज से आधी सदी पहले प्रकाशित उनके खंडकाव्य 'आत्मजयी' में नचिकेता की भूमिका प्रमुख थी तो 'वाजश्रवा के बहाने' में उसके पिता के विचारों, भावनाओं और द्वंद्व का चित्रण है। दोनों खंडकाव्य अपने आप में संघर्षशील होते हुए भी कहीं एक दूसरे के पूरक भी हैं। वाजश्रवा और नचिकेता के पात्र भले ही 'कठोपनिषद' से लिए गये हों, किंतु पिता-पुत्र के दृष्टिकोण का अंतर आज भी उतना ही प्रासंगिक है। उचित ही है कि कुंवर जी ने अपनी यह पुस्तक अपने नचिकेता यानी अपने पुत्र अपूर्व को समर्पित की है। कुंवर जी से भाषा संयम भी सीखा जा सकता है। आज के कवियों को सीखना चाहिए।

पिता की भौतिकता और पुत्र की आत्मिकता के बीच जो टकराव है, आशा-निराशा के बीच का जो द्वंद्व है उसे कवि ने द्वंद्व के रुप में नहीं, बल्कि संयुक्त या दोहरी जीवनी शक्ति के रुप में देखा है। कहीं-कहीं नरेश मेहता की तरह कुंवर जी प्रकृति का आह्वान करते प्रतीत होते हैं। ''कभी एक यज्ञ करता हूँ, उसके साथ बैठकर/ तब पुरोहित हो जाता है पूरा वन/तब आकाश गूँज उठता है, उसके मंत्रोच्चार की/और हवा में फैल जाती है, फूलों की सुगंध।''

कुछ कविताएँ वैदिक ऋचाओं के अनुवाद जैसी लगती हैं। ''लौट आओ प्राण:, पुन: हम प्राणियों के बीच/तुम जहाँ कहीं भी चले गए हो/हमसे बहुत दूर/लोक में परलोक में/तम में/आलोक में, शोक में, अशोक में/वात में, निर्वात में, निर्झर में, निपात में/कात्पि में समाप्ति में।'' पुराकथाओं और मिथकों से संदर्भ लेकर आज के जीवन को देखने की अद्भुत दृष्टि कुंवरजी के पास है।

ऐसे समय में जब अधिकांश अधेड़ और युवा कवि वर्तमान भारतीय सामाजिक, राजनीतिक जीवन को ही अपना प्रमुख विषय बनाए हुए हैं, विष्णु खरे पाठांतर करते हैं और बताते हैं कि हमारे मिथकों से अभी भी प्रेरणा ली जा सकती है। महाभारत की अनेक कथाओं से लेकर उन्होंने अद्भुत कविताएँ रची हैं। इस दृष्टि से प्रतिरोध कविता देखी जा सकती है जो गणेश के जन्म के प्रसंग से उस विचित्र भाग्य हाथी शिशु की नियति भी मार्मिक ढंग से उजागर करती है। जीवन जगत के, सृष्टि के, ईश्वर के अनेक रहस्यों को खोलती हुई उनकी कविता कहीं-कहीं बोझिल तत्सम शब्दावली का शिकार जरुर हो जाती है, लेकिन वे नयी दृष्टि से अंधकार पर-प्रकाश डालते हैं-''यह ठीक है कि जो प्रकाश को जानते हैं/उनके लिए यह अनिवार्य है/लेकिन इस मानसिकता के चलते/अंधकार की अक्षम्य उपेक्षा हुई है।'' एक कविता में तो वे अंग्रेजी के शब्दों की भरमार कर देते हैं और एक कविता गोधरा-मालवा इलाके की है, इसलिए मालवी में लिखी गई है। विष्णु खरे शब्दों की मितव्ययिता को कविता का गुण नहीं मानते और अक्सर गद्य के इलाके में चले जाते हैं। कई बार वे कविता के सीमांतों का अतिक्रमण करने लगते हैं। रुढि़बद्ध काव्य प्रतिमानों को तोड़ते नजर आते हैं।

लीलाधर जगूड़ी अपनी लंबी और छोटी कविताओं के संपुंजन को महाकाव्यात्मक स्वरुप प्रदान करने में सिद्धहस्त हैं। उनकी देखादेखी कई युवा कवि भी इधर लंबी-लंबी छोड़ रहे हैं, लेकिन अक्सर वे एक लंबा और दीर्घ उलजुलूल वाक्य ही लिखकर रह जाते हैं। कविता के उजाड़ में ही कुछ जोड़ते रहते हैं। कवि कहता है कि 'खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है।' लीलाधर जगूड़ी की कविता का मुँह भी आज बाजार से ढंका है, विज्ञापन से ढंका है, अखबार से, अर्थ से ढंका है। आज की कविता में आदिकाल से लेकर आज तक के व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व के समस्त संघर्षों और अठखेलियों का एकदम नया काव्य प्रस्तुत करने का भले ही दावा किया जाता है, पर अक्सर यह दावा खोखला साबित होता है। कवि कहता है कि ''अपनी सरस्वती की अंदरुनी खबर और उस पर कड़ी से कड़ी नजर/इस ज्ञान-निर्भर युग में हरेक को रखनी चाहिए।'' पर अक्सर कवि ही यह नहीं कर पाता है। थोथा चना, बाजे घना।

लीलाधर जगूड़ी की चुनी हुई कविताएँ 'कवि ने कहा' में अपेक्षाकृत छोटी कविताएँ हैं। 'रोज हम में से कोई चला जाता है/ रोज हम में से कोई खो जाता है' विष्णु नागर घर, परिवार प्रकृति के चित्रण में सिद्धहस्त हैं। काव्यात्मकता उनके यहां है लेकिन कई बार वे नारा लगाने से नहीं चूकते-''सबसे अच्छी कविता/सबसे बुरे दिनों में पहचानी जाएगी/देखते-देखते आग में बदल जाएगी।'' कविता आग में कब बदलेगी-यह देखना होगा। कविता भारतीय राजनीति को ही नहीं बदल पाई। नरेन्द्र मोदी को ही नहीं बदल पाई, जबकि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ लगभग हर बड़े कवि ने विषवमन किया है। क्या गुजरात में हिन्दी कविता नहीं पढ़ी जाती?

आज अधिकांश कविता खराब लिखी जा रही है। समाज और जीवन खराब है, क्या इसीलिए स्वाभाविक है कि कविता भी खराब हो। लीलाधर जगूड़ी-''यह जो कुछ भी कविता बना रही है/इसका सामाजिक खराबियों से ही तो कोई संबंध नहीं?'' समाज के खराब हालातों का तो कविता से संबंध है। ''जो वाक्य देखो वही निरर्थकता के बीच कविता बना चला आता है/अपने गरीब आशय और अर्थ के साथ''-(जगूड़ी)। वहीं असद जैदी कहते हैं-''एक कविता जो पहले ही से खराब थी/होती जा रही है अब और खराब/सारी समालोचना राख है, जिसके सामने। भाव की जगह शब्द ''ऊल-जुलूल और फिजूल में भी/कोई न कोई अर्थ या ध्वनि पैदा कर ही देता है।''(जगूड़ी)

अन्याय को ईश्वर की तरफ सर्वव्यापक देखकर आज का कवि अपनी आँखें मूँद लेना चाहता है। उसका प्रतिकार करने की ताकत जैसे आज के मनुष्य में नहीं है, वैसे ही आज के कवि में भी नहीं है।

आज की कविता विश्व कविता का कोलाज भर है, उसमें संपादन की कमी है।
आज समाज में कविता और कवि की जो जगह है उसमें फिर भी मैं कवि हूँ, कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता है।
वरिष्ठ कवि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के संग्रह 'फिर भी कुछ रह जाएगा।' में ठंडी आग है। न उछाल है न उद्दाम आग है, न आत्मरति और न बनावट, न कविता बनाने की जुगत इनमें है। इनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति तथा राग और विराग की बेचैनी है। इस दुखमय जगत के बीच जीने की अदम्य जीजीविषा मरणधर्मा संसार में कुछ अनीश्वर की खोज, अर्थ के भीतर भी अर्थ की तलाश और व्यक्त में ही अव्यक्त की तलाश इनमें देखी जा सकती है। इनमें अनंत जन्मों की कथा है। घर-परिवार, स्त्री शोषण पर चिरपरिचित कविताएँ हैं।
हेमंत शेष के 'बहुत कुछ जैसा कुछ नहीं' में १९८२ से २००२ के बीच की कविताएँ हैं। इनमें अनुभवों और अनुभूतियों का एक समृद्ध संसार प्रकट होता है। घर के बारे में कविता लिखते हुए वे कविता का घर बनाते हैं। 'दरवाजे अच्छी कविता है।'

असद जैदी-'सामान की तलाश' और नीलाभ-'ईश्वर को मोक्ष में' भारतीय राजनीति, हिन्दू सांप्रदायिकता, गुजरात नरसंहार और नरेन्द्र मोदी के पापों पर चोट करते हैं। असद जैदी के एकांगी दृष्टिकोण पर वर्षभर बहस चली है। नीलाभ ने ठीक ही लिखा है कि ''निश्चिय ही कविता के लिए यह बुरा वक्त है। जब वह कवि को, हजारों के पुरस्कार दिला देती है। लाख रुपए की विदेश यात्रा करा देती है, मगर पचास पाठक नहीं जुटा पाती। निश्चिय ही कविता के लिए यह बहुत बुरा वक्त है।'' नीलाभ ने ही लिखा है कि ''कविता इन दिनों कुछ इतनी बेढंगी हो गयी है कि समझ में नहीं आता कि उसका क्या करें।''

स्त्रियाँ और स्त्रीजीवन आज की हिन्दी कविता में पूरी संवेदनशीलता के साथ आया है। आज जितनी कवियित्रियाँ हिन्दी में दिखाई देती हैं। उतनी पहले कभी नहीं रहीं। स्त्री की जीवंत एवं मार्मिक उपस्थिति पुरुष कवियों में भी बराबर देखी जा सकती हैं। कवि तुमुल कोलाहल कलह के बीच निरंतर अपने को मांज रहे हैं। वे यह जान गए है कि आत्ममुग्धता के शिकार कवि ज्यादा दिन तक नहीं चल पाएँगे उनकी पूँजी चुक जाती है। 'बयां' जैसी अद्र्धवार्षिक पत्रिका में भी अच्छी कविताएँ आई हैं।

कई कवि अपने वरिष्ठ कवियों की अंधाधुंध नकल करके ही अपनी दुकान चला रहे हैं। कुछ पत्रिकाएँ और प्रकाशक ऐसे कवियों को कुछ समय तक बढ़ावा जरुर देते हैं, लेकिन यह सब देर तक नहीं चलता है और उनकी दुकानदारी बंद हो जाती है। कविता के कंटकाकीर्ण मार्ग पर अपनी ही खुद की रसद लेकर चलना होता है। कमलेश जैसे कवि का इस वर्ष फिर सक्रिय होना इस बात का उदाहरण है कि अपने समय की कविता की चमक-धमक से निर्लिप्त रहकर भी सार्थक कविता लिखी जा सकती हैं। कमलेश फैशनेबल कविता नहीं लिखते। उधार के आयातित अनुभव उनकी कविता में जगह नहीं पाते।

प्रयाग शुक्ल जैसे कवि 'हाइकु' को लेकर भी अनेक प्रयोग कर रहे हैं।

आज की हिन्दी कविता स्त्रियों, दलितों, वंचितों की होकर भी किसी राजनीतिक संगठन से जुड़ी हुई नहीं है। उसमें दलित एजेंडा उस तरह उभरकर नहीं आता है, जिस तरह दलित कहानीकारों में वह आता है। दुनिया को और सुंदर और मानवीय और अर्थगर्भ बनाने में आज का कवि और उसकी कविता लगी है। जीवन और समाज के अंधेरे कोनों-अंतरों में झाँक कर वे जीवन में उजाला लाते हैं। जहाँ बहुत अधिक उजाला होता है, वहाँ का अंधेरा दिखाने के लिए सही कवि की जरुरत पड़ती है। नए-नए संदर्भों पर इतनी अच्छी कविताएँ इधर पढऩे को मिली हैं कि समकालीन कविता के वस्तुजगत में जबर्दस्त फैलाव आया है। समकालीन हिन्दी कविता का सौंदर्यबोध और बढ़ेगा। अगर कुछ कवि स्मार्ट वक्तव्यों की कीर्तियागिरी से बचें और कविता में ज्यादा चतुरसुजान न बनें। सामाजिक परिवेश में हिंसा के दुष्प्रभावों को लोकजीवन की आंतरिक तहों में देखने का काम महत्वपूर्ण ढंग से ऋतुराज और श्रीप्रकाश शुक्ल ने इधर किया है। इनकी कविताओं में हिंसा के नए-नए रुप दिखाए जा रहे हैं। इनकी कविताओं में हिन्दी प्रदेशों की सांस्कृतिक चेतना पर पडऩे वाले तरह-तरह के संकट देखे जा सकते हैं। प्रसार माध्यमों द्वारा फैलाई जा रही छद्दम चेतना और इन सबके बीच कवि और उसके परिवेश के निरंतर जटिल होते संबंधों की अनुगंूज सुनी जा सकती है। ये कवि एक नई अंतदृष्टि के साथ राजनीति, अर्थ, समाज विज्ञान, मनोविज्ञान और संस्कृति के आपसी जटिल संबंधों की पड़ताल कर रहे हैं।

यह सही है कि क्लीशे और काव्यरुढिय़ों पर हमला बोलने वाली कविता आज कम लिखी जा रही है पर वह निरंतर मत-मतांतरों और मताग्रहों को तोड़ती चल रही है। गलाकाट प्रतिद्वंद्विता से भरे समय में मनुष्य के सामने आज अपनी अस्तित्व रक्षा का ही संकट आ खड़ा हुआ है। किसानों की आत्महत्या के दिल दहलाने वाले आँकड़े आज हमारे सामने हैं। घर, परिवार, बेरोजगारी, असामनता, प्रेम और स्नेह की अनुपस्थिति, असुरक्षा, अनियमितता, आशंकाएँ, घरेलू और सामाजिक हिंसा के नए-नए रुप आज हमारे कवि को विचलित कर रहे हैं। वो इन सबके बीच अपना निजी मुहावरा तलाश कर रहे है।

सम्पर्क- २१ ब, लॉ एपॉर्टमेंट, ए.जी.सी.आर. इंकलेव, दिल्ली-११००९२, मो.-०९३१२१४७०५१
(Source: http://www.prernamagazine.com/dec-09/bahas-kai-liye/rajendra.html )

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